महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-22
त्रयोदश (13) अध्याय: कर्णपर्व
दोनों सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध तथा सात्यकि के द्वारा विन्द और अनुविन्दका वध
संजय कहते हैं-राजन् ! तत्पश्चात् महाधनुर्धर शूरवीर कर्ण ने झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा समरांगण में पाण्डव सेना का संहार आरम्भ किया। राजन् ! इसी प्रकार क्रोध में भरे हुए महारथी पाण्डव भी कर्ण के सामने ही आपके बेटे की सेना का विनाश करने लगे। महाराज ! कर्ण के नाराच कारीगरों द्वारा धोकर साफ किये गये थे, इसलिए सूर्य की किरणों के समान चमक रहे थे। उनके द्वारा वह भी रणभूमि में पाण्डव सेना का वध करने लगा। भरतनन्दन ! वहाँ कर्ण के चलाये हुए नाराचों की मार खाकर झुंड के झुंड हाथी चिंघाड़ने, पीड़ा से कराहने, मलिन होने और दसों दिशाओं में चक्कर काटने लगे। माननीय ! नरेश सूतपुत्र के द्वारा उस महासमर में जब अपनी सेना मारी जाने लगी, तब नकुल ने तुरंत ही कर्ण पर धावा किया। भीमसेन ने दुष्कर कर्म करते हुए अश्वत्थामा को तथा सात्यकि ने केकसदेशीय विन्द और अनुविन्द को रोका ।। सामने आते हुए श्रुतकर्मा को राजा चित्रसेन ने रोका तथा प्रतिविंध्य विचित्र ध्वज और धनुषवाले चित्र का सामना किया।। दुर्योधन ने धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर और क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने संशप्तकगणों पर धावा किया। बड़े-बड़े वीरों का संहार करने वाले उक्त संग्राम में धृष्टद्युम्न कृपाचार्य के साथ युद्ध करने लगे और शिखण्डी कभी पीछे न हटने वाले कृतवर्मा से भिड़ गया। महाराज ! श्रुतकीर्ति ने शल्य पर और प्रतापी माद्रीकुमार सहदेव ने आपके पुत्र दुःशासन पर आक्रमण किया। भरतनन्दन ! केकय राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने युद्ध में चमकीले बाणों की वर्षा करके सात्यकि को और सत्यकि ने दोनों केकय राजकुमारों को आच्छादित कर दिया। जैसे विशाल वन में दो हाथी अपने विरोधी हाथी पर दोनों दाँतों से प्रहार करते हों, उसी प्रकार वे दोनों वीर भ्राता विन्द और अनुविन्द सात्यकि की छाती में गहरी चोट पहुँचाने लगे। राजन् ! उन दोनों के कवच बाणों से छिन्न-भिन्न हो गये थे, तो भी उन दोनों भाइयों ने रणभूमि में सत्यकर्मा सात्यकि को बाणों से घायल कर दिया। महाराज ! भरतनन्दन ! सात्यकि ने हँसते-हँसते सम्पूर्ण दिशाओं को अपने बाणों की वर्षा से आच्छादित करके उन दोनों भाइयों को रोक दिया। सात्यकि की बाण वर्षा से रोके जाते हुए उन दोनों राजकुमारों ने तुरंत ही उनके रथ को बाणों से आच्छादित कर दिया। तब महायशस्वी सात्यकि अपने तीखे बाणों से उन दोनों के विचित्र धनुषों को काटकर उन्हें युद्धस्थल में आगे बढ़ने से रोक दिया। फिर वे दोनों भाई दूसरे विचित्र धनुष और उत्तम बाण लेकर सात्यकि को आच्छादित करते हुए सुन्दर एवं शीघ्र गति से सब ओर विचरने लगे। उन दोनों के छोड़े हुए स्वर्णभूषित महान् बाण, जो कंक और मोर के पंखों से सुशोभित थे, सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए गिरने ल। राजन् ! उस महासमर में उन दोनों के बाणों से अन्धकार छा गया। फिर उन तीनों महारथियों ने एक दूसरे के धनुष काट डाले। महाराज ! फिर तो रणदुर्मद सात्यकि कुपित हो उठे। उन्होंने युद्ध स्थल में दूसरा धनुष लेकर उसकी प्रत्युचा चढ़ायी और एक अत्युत तीखे क्षुरप्र के द्वारा अनुविन्द का सिर काट लिया। राजन् ! उस महासागर में मारे गये अनुविन्द का कुण्डलमण्डित महान् मस्तक शम्बरासुर के सिर के समान कट कर गिरा और समसत केकयों को शोक में डालता हुआ शीघ्र पृथ्वी पर जा पड़ा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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