श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 74 श्लोक 45-54
दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितमोऽध्यायः(74) (उत्तरार्ध)
जैसे आकाश से गिरा हुआ लूक धरती में समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियों के देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण में समा गयी । परीक्षित्! शिशुपाल के अन्तःकरण में लगातार तीन जन्म से वैर भाव की अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभाव से ही सही, ध्यान करते-करते वह तन्मय हो गया—पार्षद हो गया। सच है—मृत्यु के बाद होने वाली गति में भाव ही कारण है । शिशुपाल की सद्गति होने के बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिर ने सदस्यों और ऋत्विजों को पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान—अवभृथ-स्नान किया ।
परीक्षित्! इस प्रकार योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीँ रहे ।इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारकापुरी की यात्रा की ।
परीक्षित्! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत बहुत विस्तार से (सातवें स्कन्ध से) सुना चुका हूँ कि बैकुण्ठवासी जय और विजय को सनकादि ऋषियों के शाप से बार-बार जन्म लेना पड़ा था ।महाराज युधिष्ठिर राजसूय का यज्ञान्त-स्नान करके ब्राम्हण और क्षत्रियों की सभा में देवराज इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे । राजा युद्धिष्ठिर ने देवता, मनुष्य और आकाशचारियों का यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान् श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्द से अपने-अपने लोकों को चले गये । परीक्षित्! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिये एक महान् रोग था ।
परीक्षित्! जो पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण की इस लीला-शिशुपाल वध, जरासन्ध वध, बंदी राजाओं की मुक्ति और यज्ञानुष्ठान का कीर्तन करेगा, वह समस्त पापों से छूट जायगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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