श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 37 श्लोक 9-21
दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंशोऽध्यायः (37) (पूर्वाध)
उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होने के कारण ही पकी ककड़ी की तरह फट गया। महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके शरीर से अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्न के ही शत्रु का नाश हो गया। देवताओं को अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान् के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे ।
परीक्षित्! देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैषी है। कंस के यहाँ लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये और एकान्त में उनसे कहने लगे— ‘सच्चिदानंदस्वरुप श्रीकृष्ण! आपका स्वरुप मन और वाणी का विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत् का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके ह्रदय में निवास करते हैं और सब-के-सब आपके ह्रदय में निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वांछनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं । जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियों में व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आत्मा के रूप में होने पर भी आप अपने को छिपाये रखते हैं; क्योंकि पंचकोशरूप गुफाओं के भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तम के रूप में, सबके नियन्ता के रूप में और सबके साक्षी के रूप में आपका अनुभव होता ही है । प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी माया से ही गुणों की सृष्टि की और उन गुणों को ही स्वीकार करके आप जगत् की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करने के लिये आपको अपने से अतिरिक्त और किसी भी वस्तु आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं । वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसों का, जिन्होंने आजकल राजाओं का वेष धारण कर रखा है, विनाश करने के लिये तथा धर्म की मर्यादाओं की रक्षा करने के लिये यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं । यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल-ही-खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। इसकी हिनहिनाहट से डरकर देवता लोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे ।
प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को मरते देखूँगा।
उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध देखूँगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे ।
आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुडायेंगे ।
आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आयेंगे और अपने धाम से ब्राम्हण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे ।
इसके पश्चात् आप पौण्ड्रक—मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहाँ से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे ।
प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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