श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 38 श्लोक 1-10

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दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः (38) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1- 10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रातःकाल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिये । परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रज की यात्रा करते समय मार्ग में कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण की परम प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोंचने लगे— ‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा । मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितियों में, बड़े-बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते—उन भगवान् के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र्कुल के बालक के लिये वेदों का कीर्तन । परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान् श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदी में बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पार से उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह से भी कहीं कोई इस संसार सागर को पार कर सकता है। अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान् के उन चरणकमलों में साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं । अहो! कंस के भेजने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंस के भेजने से मैं इस भूतल पर अवतीर्ण स्वयं भगवान् के चरणकमलों के दर्शन पाउँगा। जिनके नभमण्डल की कान्ति का ध्यान करके पहले युगों के ऋषि-महर्षि इस अज्ञान रूप अपार अन्धकार-राशि को पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान् तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं । ब्रम्हा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी थी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं—भगवान् के वे ही चरणकमल गौओं को चराने के लिये ग्वालबालों के साथ वन-वन में विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि –वन्दित श्रीचरण गोपियों के वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से रँग जाते हैं, चिन्हित हो जाते हैं, मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उसनके कोमल कपोल हैं, तोते की ठोर के समान नुकीली नासिका है, होंठों पर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्ति के परम दानी श्रीमुकुन्द के उस मुखकमल का आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओर से निकल रहे हैं । भगवान् विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिये स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं! वे सम्पूर्ण लावण्य के धाम हैं। सौन्दर्य की मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हीं का दर्शन होगा! अवश्य होगा! आज मुझे सहज में ही आँखों का फल मिल जायगा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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