श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 77 श्लोक 1-17

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दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितमोऽध्यायः(77) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


शाल्व-उद्धार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—अब प्रद्दुम्नजी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथी से कहा कि ‘मुझे वीर द्दुमान् के पास फिर से ले चलो’। उस समय द्दुमान् यादव सेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्दुम्नजी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करने से रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे ।

चार बाणों से उनके चार घोड़े और एक-एक बाण से सारथी, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला ।इधर गड, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्व की सेना का संहार करने लगे। सौभ विमान पर चढ़े हुए सैनिकों की गरदनें कट जातीं और वे समुद्र में गिर पड़ते ।

इस प्रकार यदुवंशी और शाल्व के सैनिक एक-दूसरे पर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयंकर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनों तक चलता रहा ।

उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के बुलाने से इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपाल की भी मृत्यु हो गयी थी।

वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवों से अनुमति लेकर द्वारका के लिये प्रस्थान किया । वे मन-ही-मन कहने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजी के साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपाल के पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारका पर आक्रमण कर रहे होंगे’ । भगवान् श्रीकृष्ण ने द्वारका पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवों पर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजी को नगर की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्व को देखकर अपने सारथि दारुक से कहा— ‘दारुक! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्व के पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’ ।भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथ पर चढ़ गया और सूए शाल्व की ओर ले चला। भगवान् के रथ की ध्वजा गरुड़चिन्हों से चिन्हित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान् को पहचान लिया । परीक्षित्! तब तक शाल्व की सारी सेना प्रायः नष्ट हो चुकी थी। भगवान् श्रीकृष्ण को देखते ही उसने उनके सारथी पर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयंकर शब्द करती हुई आकाश में बड़े वेग से चल रही थी और बहुत बड़े लूक के समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाश से दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथी की ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये । इसके बाद उन्होंने शाल्व को सोलह बाण मारे और उसके विमान को भी, जो आकाश में घूम रहा था, असंख्य बाणों से चलनी कर दिया—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी किरणों से आकाश को भर देता है ।शाल्व ने भगवान् श्रीकृष्ण की बायीं भुजा में जिसमें शारंगधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे सारंगधनुष भगवान् के हाथ से छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी । जो लोग आकाश या पृथ्वी से यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ पुकार उठे। अब शाल्व ने गरजकर भगवान् श्रीकृष्ण से यों कहा—

‘मूढ़! तूने हम लोगों के देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा भरी सभा में, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था, तूने उसे मार डाला ।






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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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