श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 77 श्लोक 18-30
दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितमोऽध्यायः(77) (उत्तरार्ध)
मैं जानता हूँ कि तू अपने को अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणों से वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता’। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—‘रे मन्द! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिरपर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थ की बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’। इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयंकर गदा से शाल्व के जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा । इधर जब गदा भगवान् के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घडी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान् के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यन्त प्रेम रखने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिता को उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशु को बाँधकर ले जाय!’। यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँह पर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुष के समान अत्यन्त करुणा और स्नेह से कहने लगे— ‘अहो! मेरे भाई बलरामजी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बाँधकर ले गया ? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है’ ।भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजी के समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्ण से कहने लगा—
‘मूर्ख! देख, यही तुझे पैदा करने वाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’ मायावी शाल्व ने इस प्रकार भगवान् को फटकार कर मायारचित वसुदेव का सिर तलवार से काट लिया और उसे लेकर अपने आकशस्थ विमान पर जा बैठा । परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरुप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ी के लिये अपने स्वजन वसुदेवजी के प्रति अत्यन्त प्रेम होने के कारण साधारण पुरुषों के समान शोक में डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्व की फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मय दानव ने बतलायी थी । भगवान् श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में सचेत होकर देखा—न वहाँ दूत है और न पिता का वह शरीर; जैसे स्वप्न में एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो! उधर देखा तो शाल्व विमान पर चढ़कर आकाश में विचर रहा है। तब वे उसका वध करने के लिये उद्दत हो गये । प्रिय परीक्षित्! इस प्रकार की बात पूर्वापर का विचार न करने वाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बात को भूल जाते हैं कि श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा कहना उन्हीं के वचनों के विपरीत है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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