श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 34-44
दशम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः(13) (पूर्वाध)
बूढ़े गोपों को अपने बालकों के आलिंगन से परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्ट से उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँ से गये। जाने के बाद भी बालकों के और उनके आलिंगन के स्मरण से उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू बहते रहे।
बलरामजी ने देखा कि व्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनों की उन सन्तानों पर भी, जिन्होंने अपनी माँ का दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-संम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कंठा बढती जा रही है, तब वे विचार में पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था । ‘यह कैसी विचित्र बात है! सर्वात्मा श्रीकृष्ण में व्रजवासियों का और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ों पर ही बढ़ता जा रहा है । यह कौन-सी माया है ? कहाँ से आयी है ? यह किसी देवता की है, मनुष्य की है अथवा असुरों की ? परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है ? नहीं-नहीं, यह तो मेरे प्रभु की माया है। और किसी की माया में ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले’ । बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टि से देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं । तब उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा—‘भगवन्! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपों का आश्रय लेने पर भी आप अकेले ही इन रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़े में ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े, बालक, सिंगी, रस्सी आदि के रूप में अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं ?’ तब भगवान् ने ब्रम्हा की सारी करतूत सुनायी और बलरामजी ने सब बातें जान लीं ।
परीक्षित्! तब तक ब्रम्हाजी ब्रम्हलोक से व्रज में लौट आये। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि (जितनी देर में तीखी सुई से कमल की पँखुडी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक साल से पहले की भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं । वे सोंचने लगे—‘गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्या पर सो रहे हैं—उनको तो मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था; वे तब से अब तक सचेत नहीं हुए । तब मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँ से आ गये, जो एक साल से भगवान् के साथ खेल रहे हैं ? ब्रम्हाजी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देर तक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टि से उनका सहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनों में कौन-से पहले के ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इसमें से कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी—यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके । भगवान् श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान् का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रम्हाजी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोहित हो गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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