सप्तत्रिंश (37) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (नारदागमन पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
ऊँची-नीची भूमि आ जाने पर संजय ही राजा धृतराष्ट्र को चलाते थे और अनिन्दिता सती-साध्वी कुन्ती गान्धारी के लिये नेत्र बनी हुई थीं। तदनन्तर एक दिन की बात है, बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र ने गंगा के कछार में जाकर उनके जल में डुबकी लगायी और स्नान के पश्चात् वे अपने आश्रम की ओर चल पड़े। इतने ही में वहाँ बड़े जोर की हवा चली । जिससे उस वन में बड़ी भारी दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी । उसने चारों ओर से उस सारे वन को जलाना आरम्भ किया। सब ओर मृगों के झुंड और सर्प दग्ध होने लगे । वनैले सूअर भाग-भागकर जलाशयों की शरण लेने लगे। राजन् ! सारा वन आग से घिर गया और उन लोगों पर बड़ा भारी संकट आ गया । उपवास करने से प्राणशक्ति क्षीण हो जाने के कारण राजा धृतराष्ट्र वहाँ से भागने में असमर्थ थे, तुम्हारी दोनों माताएँ भी अत्यन्त दुर्बल हो गयी थीं; अतः वे भी भागने में असमर्थ थीं। तदनन्तर विजयी पुरूषों में श्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र ने उस अग्नि को निकट आती जान सूत संजय से इस प्रकार कहा - ‘संजय ! तुम किसी ऐसे स्थान में भाग जाओ, जहाँ यह दावाग्नि तुम्हें कदापि जला न सके । हम लोग तो अब यहीं अपने कोअग्नि में होम कर परम गति प्राप्त करेंगे’। तब वक्ताओं में श्रेष्ठ संजय ने अत्यन्त उद्विग्न होकर कहा-‘राजन् ! इस लौकिक अग्नि से आप की मृत्यु होना ठीक नहीं है, (आप के शरीर का दाह-संस्कार तो आहवनीय अग्नि मेंहोना चाहिये ।) किंतु इस समय इस दावानल से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी मुझे नहीं दिखायी देता ।‘अब इसके बाद क्या करना चाहिये - यह बताने की कृपा करें ।’ संजय के ऐसा कहने पर राजा ने फिर कहा- ‘संजय ! हम लोग स्वयं गृहस्थाश्रमका परित्याग करके चले आये हैं, अतः हमारे लिये इस तरह की मृत्यु अनिष्टकारक नहीं हो सकती । जल,अग्नि तथा वायु के संयोग से अथवा उपवास करके प्राण त्यागना तपस्वियों के लिये प्रशंसनीय माना गया है; इसलिये अब तुम शीघ्र यहाँ से चले जाओ । विलम्ब न करो’। संजय से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने मन को एकाग्र किया और गान्धारी तथा कुन्ती के साथ वे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। उन्हें उस अवस्था में देख मेधावी संजय ने उनकी परिक्रमा की और कहा-‘महाराज ! अब अपने कोयोगयुक्त कीजिये। महर्षि व्यास के पुत्र मनीषी राजा धृतराष्ट्र ने संजय की वह बात मान ली । वे इन्द्रिय समुदाय को रोककर काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट हो गये। इसके बाद महाभाग गान्धारी, तुम्हारी माता कुन्ती तथा तुम्हारे ताऊ राजा धृतराष्ट्र-ये तीनों ही दावाग्नि में जल कर भस्म हो गये; पंरतु महामात्य संजय उस दावाग्निसे जीवित बच गये हैं। मैंने संजय को गंगा तट पर तापसोंसे घिरा देखा है । बुद्धिमान् और तेजस्वी संजय तापसों को यह सब समाचार बताकर उन से विदा ले हिमालय पर्वत पर चले गये। प्रजानाथ ! इस प्रकार महामनस्वी कुरूराज धृतराष्ट्र तथा तुम्हारी दोनों माताएँ गान्धारी और कुन्ती मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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