महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 32 श्लोक 1-20

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द्वात्रिंश (32) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: द्वात्रिंश अध्याय: श्लोक 55-73 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन की शल्य से कर्ण का सारथि बनने के लिए प्रार्थना और शल्य का इस विषय में घोर विरोध करना,पुनः श्रीकृष्ण के समान अपनी प्रशंसा सुनकर उसे स्वीकार कर लेना

संजय कहते हैं-महाराज ! आपका पुत्र दुर्योधन महाराज महारथी शल्य के पास विनीत भाव से जाकर प्रेम पूर्वक इस प्रकार बोला-। महाभाग ! सत्यव्रत ! शत्रुओं का संताप बढ़ाने वाले मद्रराज ! रणवीर ! शत्रुसैन्यभयंकर ! वक्तओें में श्रेष्ठ आपने कर्ण की बात सुनी है। उसी के अनुसार इन राजसिंहों के बीच मैं स्वयं आपका वरण करता हूँ। ‘शत्रु पक्ष का विनाश करने वाले,अनुपम शक्तिशाली,रथियों में श्रेष्ठ मद्रराज ! मैं मस्तक झुकाकर विनय पूर्वक आपसे यह याचना करता हूँ कि आप अर्जुन के विनाश और मेरे हित के लिए प्रेम पूर्वक कर्ण का सारथ्य कीजिये। ‘आपके सारथि होने पर राधापुत्र कर्ण मेरे शत्रुओं को जीत लेगा। कर्ण के रथ की बागडोर पकड़ने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। महाभागा ! आप युद्ध में वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के समान हैं। जैसे ब्रह्माजी ने सारथि बनकर महादेव ती की रक्षा की थी जैसे सब प्रकार की आपत्तियों में श्रीकृष्ण अर्जुन की रक्षा करते हैं,उसी प्रकार आप कर्ण की सर्वथा रक्षा कीजिये। मद्रराज ! आज आप राधापुत्र का प्रतिपालन कीजिये। ‘भीष्म,द्रोण,कृपाचार्य,कर्ण,आप,पराक्रमी कृतवर्मा,सुबलपुत्र शकुनि,द्रोणकुमार अश्वत्थामा और मैं-ये ही हमारे बल हैं। ‘पृथ्वीपते ! इस प्रकार मेरी सेना के नौ भाग किये गये थे। अब यहाँ भीष्म तथा महात्मा द्रोणाचार्य का भाग नहीं रह गया है। उन दोनों ने उनके लिये निर्धारित भागों से और आगे बढ़कर मेरे शत्रुओं का संहार किया हे। ‘वे दोनों महाधनुर्धर योद्धा बूढ़े हो गये थे,इसलिये युद्ध में शत्रुओं द्वारा छल पूर्वक मारे गये। अनघ ! वे दुष्कर कर्म करके यहाँ से स्वर्ग लोक में चले गये। इसी प्रकार दूसरे पुरुष सिंह वीर भी युद्ध में शत्रुओं द्वारा मारे गये हैं। मेरे पक्ष के बहुत-से यो0ा विजय के लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टर करके रण भूमि में प्राण त्यागकर स्वर्ग लोक को चले गये। नरेश्वर ! इस प्रकार मेरी इस सेना का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका हे। पहले भी जब अपनी सारी सेना मौजूद थी,अल्पसंख्यक कुन्तीकुमारों ने कौरव सेना का नाश कर दिया था। फिर इस समय तो कहना ही क्या है ? ‘भूपाल ! बलवान्,महामनस्वी और सत्यपराक्रमी कुन्तीकुमार मेरी शेष सेना को जिस तरह भी नष्ट न कर सकें,ऐसा उपाय कीजिये। ‘प्रभो ! पाण्डवों ने समरांगण में मेरी सेना के प्रमुख वीरों को मार डालास है। एक महाबाहु कर्ण ही ऐसा है,जो हमारे प्रिय एवं हितसाधन में लगा हुआ है। ‘पुरुषसिंह याल्य ! दूसरे आप भी सम्पूर्ण विश्व में विख्यात महारथी होकर हमारे हितसाधन में संलग्न हैं। आज कर्ण रणभूमि में अर्जुन के साथ युद्ध करना चाहता है। ‘महाराज ! नरेश्वर ! उसके मन में विजय की बड़ी भारी आशा है,परंतु उसके घोड़ों की रास पकड़ने वाला ( आपके समान ) दूसरा कोई इस भूतल पर नहीं है। ‘जैसे संग्रामभूमि में अर्जुन के रथ की बागडोर सँभालने वाले श्रेष्ठ सारथि श्रीकृष्ण हैं,उसी प्रकार आप भी कर्ण के रथ पर बैठ कर उसकी बागडोर अपने हाथ में लीजिये। ‘राजन् ! श्रीकृष्ण से संयुक्त एवं सुरक्षित होकर पार्थ रणभूमि में जो-जो कर्म करते हैं,व सब आपकी आँखों के सामने हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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