श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 7-13
दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वाध)
परन्तु भगवन्! जिन समर्थ पुरुषों ने अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के हिमकण (ओस की बूँद) तथा उसमें चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन डाला है—उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरुप के अनन्त गुणों को गिन सके ? प्रभो! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन्! आपकी महिमा का ज्ञान तप बड़ा ही कठिन है । इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण ह्रदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है—इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पड़ का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र!
प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा! प्रभो! मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है ? भगवन्! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरुप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ—इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है—मेरा भृत्य हा, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये । मेरे स्वामी! प्रकृति, महतत्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रम्हाण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रम्हाण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में राज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा । वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन्! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? ‘है’ और ‘नहीं है’—इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो ? श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीं थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायण के नाभिकमल से ब्रम्हा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप भी बतलाइये, प्रभो! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ ?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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