त्रयस्त्रिंश (33 ) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद
पृथ्वीपते ! सोने का बना हुआ पुर स्वर्गलोक में स्थित हुआ। चँादी का अन्तरिक्षलोक में और लोहे का भूलोक में स्थित हुआ;जो आज्ञा के अनुसार सर्वत्र विचरने वाला था। प्रत्येक नगर की लंबाई-चैड़ाई बराबर-बराबर सौ योजन की थी। सबमें बड़े-बड़े महल और अट्टालिकाएँ थीं। अनेकानेक प्रकार ( परकोटे ) और तोरण (फाटक ) सुशोभित थे। बड़े-बड़े झारों से वह नगर भरा था। उसकी विशाल सड़कें संकीर्णता से रहित एवं विस्तृत थीं। नाना प्रकार के प्रासाद और द्वार उप पुरों की शोभा बढ़ाते थे। राजन् ! उन तीनों पुरों के राजा अलग-अलग थे। सुवर्ण मय विचित्र पुर महामना तारकाक्ष अणिकार में था। चांदीका बना हुआ पुर कमलाक्ष के और लोहे का विद्युन्माली के अधिकार में था। वे तीनों दैत्यराज अपने अस्त्रों के तेज से तीनों लोकों को दबाकर रहते थे और कहते थे कि ‘प्रजापति कौन है ? उन दानव शिरोमणियों के पास लाखों,करोड़ों और अरबों अप्रतिम वीर दैत्य इधर-उधर से आ गये थे। वे सब-के-सब मांसभक्षी और अत्यंत अभिमानी थे। पूर्वकाल में देवताओं ने उनके साथ बहुत छल-कपट किया था। अतः वे महान् ऐश्वर्य की इच्छा रखते हुए त्रिपुर-दुर्ग के आश्रय में आये थे। मयासुर इन सबको सब प्रकार की अप्राप्त वस्तुएँ प्राप्त कराता था। उसकाआश्रय लेकर वे सम्पूर्ण दैत्य निर्भय होकर रहते थे। उक्त तीनों पुरों में निवास करने वाला जो भी असुर अपने मन से जिस अभीष्ट भोग का चिन्तन करता था,उसके लिये मयासुर अपनी माया से वह-वह भोग ततकाल प्रस्तुत कर देता था। तारकाक्ष का महाबली वीर पुत्र ‘हरि ‘नाम से प्रसिद्ध था,उसने बड़ी भारी तपस्या की,जिससे ब्रह्माजी उस पर संतुष्ट हो गये। संतुष्ट हुए ब्रह्माजी से उसने यह वर मँागा कि ‘हमारे पुरों में एक-एक ऐसी बावड़ी हो जाय,जिसके भीतर डाल दिये जाने पर शस्त्रों के आघात से मरे हुए दैत्य वीर और भी प्रबल होकर जीवित हो उठें। प्रभो ! वह वरदान पाकर तारकाक्ष के वीर पुत्र हरि ने उप पुरों में एक- एक बाड़ी का निर्माण किया,जो मृतकों को जीवन प्रदान करने वाली थी। जो दैत्य जिस रूप और जैसे वेष में रहता था,मरने पर उस बावड़ी में डालने के पश्चात् वैसे ही रूप असैा वेष से सम्पन्न होकर प्रकट हो जाता था। उस वापी में पहुँच जाने पर नया जीवन धारण करके वे दैत्य पुनः उन सभी लोकों को बाधा पहुँचाने लगते थे। राजन् ! ये महान् तप से सिद्ध हुए असुर देवताओं का भय बढत्रा रहे थे। युद्ध में कभी उनका विनाश नहीं होता था। उन पुरों में बसाने गये सभीदैत्य लोभ और मोह के वशीभूत हो विवेकहीन और निर्लज्ज होकर सब ओर लूटपाट करने लगे। वरदान पाने के कारण उनका घमंड बढ़ गया था। वे विभिन्न स्थानों में देवताओं और उनके गणों को भगाकर वहाँ अपनी इच्छा के अनुसार विचरते थे। स्वर्गलोक के परम प्रिय समसत देवोद्यानों,ऋषियों के पवित्र आश्रमों तथा रमणीय जनपदों को भी वे मर्यादा शून्य दुराचारी दानव नष्ट-भ्रष्ट कर देते थे। उन देव विरोधी तीनों दैत्यों ने देवताओं,पितरों और ऋषियों को भी उनके स्थानों से हटाकर निराश्रय कर दिया। वे ही नहीं,तीनों लोकों के निवासी उनके द्वारा पददलित हो रहे थे।। जब सम्पूर्ण लोकों के प्राणी पीडि़त होने लगे,तब देवताओं सहित इन्द्र चारों ओर से वज्रपात करते हुए उन तीनों पुररें के साथ युद्ध करने लगे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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