श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 80 श्लोक 30-41
दशम स्कन्ध: एशीतितमोऽध्यायः(80) (उत्तरार्ध)
जगत् में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिये कर्म करते रहते हैं । ब्राम्हणशिरोमणे! क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे। सचमुच गुरुकुल में ही द्विजातियों को अपने ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकार से पार हो जाते हैं ।
मित्र! इस संसार में शरीर का कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मों की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्मा को प्राप्त कराने वाला गुरु तो मेरा स्वरुप ही है। वर्णाश्रमियों के ये तीन गुरु होते हैं । मेरे प्यारे मित्र! गुरु के स्वरुप में स्वयं मैं हूँ। इस जगत् में वर्णाश्रमियों में जो लोग अपने गुरुदेव के उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थ के सच्चे जानकार हैं । प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके ह्रदय में अन्तर्यामी रुप से विराजमान हूँ। मैं गृहस्थ के धर्म पंचमहायज्ञ आदि से, ब्रम्हचारी के धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदि से, वानप्रस्थी के धर्म तपस्या से और सब ओर से उपरत हो जाना—इस सन्यासी के धर्म से भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेव की सेवा-शुश्रुवा सी सन्तुष्ट होता हूँ ।
ब्रम्हमन्! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे; उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिये जंगल में भेजा था । उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गये हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी । तब तक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फ़ैल गया। धरती पर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था ।
वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधी के झटकों और वर्षा की बौछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम लोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे । जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर अपने शिष्य हम लोगों को ढूँढते हुए जंगल में पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं । वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रों! तुम लोगों ने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे । गुरु के ऋण से मुक्त होने से लिये सत्-शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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