महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:५१, ९ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन का शल्य को शिव के विचित्र रथ का विवरण सुनाना और शिवजी द्वारा त्रिपुर-वध का उपाख्यान सुनाना एवं परशुरामजी के द्वारा कर्ण को दिव्य अस्त्र मिलने की बात बताना

दुर्योधन बोला-राजन् ! परमात्मा शिव ने जब देवताओं,पितरों तथा ऋषियों के समुदाय को अभय दे दिया,तब ब्रह्माजी ने उन भगवान् शंकर का सत्कार करके यह लोक-हितकारी वचन कहा-। ‘देवेश्वर ! आपके आदेश से इस प्रजापति पद पर स्थित रहते हुए मैंने दानवों को एक महान् वर दे दिया है। ‘उस वर को पाकर वे मर्यादा का उल्लंघन कर चुके हैं। भूत,वर्तमान और भविष्य के स्वामी महैश्वर ! आपके सिवा दूसरा कोई भी उनका संहार नहीं कर सकता। उनके वध के लिए आप ही प्रतिपक्षी शत्रु हो सकते हैं। ‘देव ! हम सब देवता आपकी शरण में आकर याचना करते हैं। देवेश्वर शंकर ! आप हम पर कृपा कीजिये और इन दानवों को मार डालिये। ‘मानद ! आपके प्रसाद से सम्पूर्ण जगत् सुखपूर्वक उन्नति करता है,लोकेश्वर ! आप ही आश्रयदाता हैं;इसलिये हम आपकी शरण आये हैं ‘। भगवान् शिव ने कहा-देवताओं ! मेरा ऐसा विचार है कि तुम्हारे सभी शत्रुओं का वध किया जाये,परंतु मैं अकेला ही उन सबको नहीं मार सकता;क्योंकि वे देवद्रोही दैत्य बडत्रे ही बलवान हैं। अतः तुम सब लोग एक साथ संघ बनाकर मेरे आधे तेज से पुष्ट हो युद्ध में उन शत्रुओं को जीत लो;क्योंकि जो संघटित होते हैं,वे महान् बलशाली हो जाते हैं

देवता बोले-प्रभो ! युद्ध में हम लोगों का जितना भी तेज और बल है,उससे दूना उन दैत्यों का है,ऐसा हम मानते हैं;क्योंकि उनके तेज और बल को हमने देख लिया है। भगवान शिव बोले-देवताओं ! जो पापी तुम लोगों के उपराधी हैं,वे सब प्रकार से वध के ही योग्य हैं। मेरे तेज और बल के आधे भाग से युक्त हो तुम लोग समस्त शत्रुओं को मार डालो।

देवताओं ने कहा-महैश्वर ! हम आपका आधा बल धारण नहीं कर सकते;अतः आप ही हम सब लोगों के आधे बल से युक्त हो शत्रु का वध कीजिये।

भगवान शिव बोले-देवगण ! यदि मेरे बल को धारण करने में सामथ्र्य नहीं है तो मैं ही तुम लोगों के आधे तेज से परिपुष्ट हो इन दैत्यों का वध करूँगा। नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर देवताओं ने देवेश्वर भगवान् शिव से ‘तथास्तु ‘कह दिया और उन सबके तेज का आधा भाग लेकर वे अधिक तेजस्वी हो गये। वे देव बल के द्वारा उन सबकी अपेक्षा अधिक बलशाली हो गये। इसलिए उसी समय से उन भगवान् शंकर का महादेव नाम विख्यात हो गया।

तत्पश्चात् महादेवजी ने कहा- ‘देवताओं ! मैं धनुष-बाण धारण करके रथ पर बैठकर युद्ध स्थल में तुम्हारे उन शत्रुओं का वध करूँगा। ‘अतः तुम लो मेरे लिए रथ और धनुष की खोज करो,जिसके द्वारा आज इन दैत्यों को भूतलपर मार गिराऊँ ?

देवता बोले-देवेश्वर ! हम लोग तीनों लोकों के तेज की सारी मात्राओं को एकत्र करके आपके लिए परम तेजस्वी रथ का निर्माण करेंगे। विश्वकर्मा का बुद्धि पूर्वक बनाया हुआ वह रथ बहुत ही सुन्दर होगा। तदनन्तर उन देवसंघों ने रथ का निर्माण किया और विष्णु,चन्द्रमा तथा अग्नि-इन तीनों को उनका बाण बनाया। प्रजानाथ ! उसबाण का श्रृंग (गाँठ ) अग्नि हुए। उसका भल्ल ( फल ) चन्द्रमा हुए और उस श्रेष्ठ बाण के अग्रभाग में भगवान् विष्णु प्रतिष्ठित हुए।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख