श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 48-59
दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वाध)
आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नामरूपात्मक विश्वप्रपंच के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने होने के कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्वभ्रान्ति एवं स्वरुपज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं। आपको हमारा नमस्कार है ।
प्रभो! यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं—तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसंकल्प हैं। इसलिये जीवों के संस्काररूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत् कर देते हैं । त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ हैं—सत्वगुणप्रधान शान्त, रजोगुणप्रधान अशान्त और तमोगुणप्रधान मूढ। वे सब-की-सब आपकी लीला-मूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्वगुणप्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं । शान्तात्मन्! स्वामी को एक बार अपनी प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ है, आपको पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये । भगवन्! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधुपुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं। अतः आप हमें हमारे प्राणस्वरुप पतिदेव को दे दीजिये । हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ? क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन—आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् के चरणों की ठोकरों से कालिय नाग के फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया । धीरे-धीरे कालिय नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला ।
कालिय नाग से कहा—नाथ! हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले—बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं । विश्वविधाता! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत् में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है । भगवन्! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं। हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें । आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से—जैसा ठीक समझें—कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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