श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 81 श्लोक 15-30
दशम स्कन्ध: एकशीतितमोऽध्यायः(81) (उत्तरार्ध)
वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्य की बात है! ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की ब्राम्हणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य हैं! जिनके वक्षःस्थल पर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्र को अपने ह्रदय से लगा लिया । कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राम्हण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओं में भरकर ह्रदय से लगा लिया । इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंग पर सुलाया, जिस पर ऊनि प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मनो मैं उसका सगा भाई हूँ! कहाँ तक कहूँ ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजी ने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की । ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-सुश्रुवा की और देवता के सामान मेरी पूजा की । स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है । फिर भी परम दयालु श्रीकृष्ण ने यह सोचकर मुझे थोडा-सा भी धन नहीं दिया की कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’ ।
इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राम्हणदेवता अपने घर के पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं की सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के सामान तेजस्वी रत्न निर्मित महलों में घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उसमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति-भाँति के कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर ब्रम्हाणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ ? यह किसका स्थान है ? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था तो यह ऐसा कैसे हो गया’। इस प्रकार वे सोच ही रहे थे की देवताओं के समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजे के साथ मंगलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राम्हण की अगवानी करने के लिये आये । पतिदेव का शुभागमन सुन्दर ब्रम्हाणी को अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ा कर जल्दी-जल्दी घर से निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवन से पधारी हों । पतिदेव को देखते ही पतिव्रता पत्नी के नेत्रों में प्रेम और उत्कण्ठा के आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्रम्हाणी ने बड़े प्रेमभाव से उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिंगन भी ।
प्रिय परीक्षित्! ब्रम्हाणपत्नी सोने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित देवांगना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूप में देखकर वे विस्मित हो गये । उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मनो देवराज इन्द्र का निवासस्थान। इसमें मणियों के सैकड़ों खंभे खड़े थे । हाथी के दाँत के बने हुए और सोने के पात के मढ़े हुई पलंगों पर दूध के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिसमें सोने की डंडियाँ लगी हुई थीं ।सोने के सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिन पर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिसमें मोतियों की लड़ियाँ लटक रही थीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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