श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 81 श्लोक 31-41

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दशम स्कन्ध: एकशीतितमोऽध्यायः(81) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितमोऽध्यायः श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद


स्फटिकमणि की स्वच्छ भीतों पर पन्ने ई पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियों के हाथ में रत्नों के दीपक जगमगा रहे थे । इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उस कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरता से ब्राम्हणदेवता विचार करने लगे की मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँ से आ गयी । वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है ? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान् सरही के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता । यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होने के कारण अत्यन्त भोग-विलास सामग्रियों से युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्त को उसके मन का भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोडा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघ से भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्र को भर देने की शक्ति रखने पर भी किसान के सामने न बरसकर उसके सो जाने पर रात में बरसता है और बहुत बरसने पर भी थोडा ही समझता है । मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोडा। और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेँट किया था, पर उदारशिरोमणि श्रीकृष्ण ने उसे कितने प्रेम से स्वीकार किया । मुझे जन्म-जन्म उन्हीं का प्रेम, उन्हीं की हितैषिता, उन्हीं की मित्रता और उन्हीं की सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणों के एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हीं के प्रेमी भक्तों का सत्संग प्राप्त हो । अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं की बड़े-बड़े धनिकों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके माँगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’। परीक्षित्! अपनी बुद्धि से इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राम्हणदेवता त्यांगपूर्वक अनासक्त भाव से अपनी पत्नी के साथ भगवत्प्रसाद स्वरुप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनों दिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी । प्रिय परीक्षित्! देवताओं के भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान् स्वयं ब्राम्हणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राम्हणों से बढ़कर और कोई भी प्राणी जगत् में नहीं है । इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा उस ब्राम्हण ने देखा की ‘यद्यपि भगवान् अजित हैं, किसी के अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकों के अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं,’ अब वे उन्हीं के ध्यान में तन्मय हो गये। ध्यान के आवेग से उनकी अविद्या की गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समय में भगवान् का धाम, जो की संतों का एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया । परीक्षित्! ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले भगवान् श्रीकृष्ण की इस ब्राम्हण भक्ति को जो सुनता है, उसे भगवान् के चरणों में प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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