श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 63-69
दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः (47) (पूर्वाध)
नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ—उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए । जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंट की सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखों में आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेम से कहा— ‘उद्धवजी! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे। उन्हीं की सेवा के लिये उठे और उन्हीं में लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे । उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें—वह शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढती रहे’ । प्रिय परीक्षित्! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया। अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबा ने भेंट की जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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