श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 82 श्लोक 15-29
दशम स्कन्ध: द्वयशीतितमोऽध्यायः(82) (उत्तरार्ध)
परीक्षित्! एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी के ह्रदय-कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरे को भुजाओं में भरकर ह्रदय से लगाते, उनके नेत्रों में आँसुओं की झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेम के आवेग से बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्र में डूबने-उतराने लगते ।
पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरे को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवन से देख-देखकर परस्पर भेँट-अँकवार भरने लगीं। वे अपनी भुजाओं में भरकर केसर लगे हुए वक्षःस्थलों को दूसरी स्त्रियों के वक्षःस्थलों से दबातीं और अत्यन्त आनन्द का अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू छलकने लगते । अवस्था आदि में छोटे ने बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया और उन्होंने अपने से छोटों का प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरे का स्वागत करके तथा कुशल-मंगल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आपस में कहने-सुनने लगे । परीक्षित्! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दुःख भूल गयीं ।
कुन्ती ने वसुदेवजी से कहा—भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुःख की बात क्या होगी ? भैया! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं ।
वसुदेवजी ने कहा—बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है । बहिन! कंस से सताये जाकर हम लोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वर कृपा से हम सब पुनः अपना स्थान कर सके हैं ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वहाँ जितने भी नरपति आये थे—वसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियों ने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर परमानन्द और शान्ति का अनुभव करने लगे । परीक्षित्! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रों के साथ गान्धारी, पत्नियों के सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृंजय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित् पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशीनरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सकर्मा, अपने पुत्रों साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिर के अनुयायी नृपति भगवान् श्रीकृष्ण का परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियों को देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये । अब वे बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्ण से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्द से श्रीकृष्ण के स्वजनों—यदुवंशियों की प्रशंसा करने लगे । उन लोगों ने मुख्यता उग्रसेनजी को सम्बोधित कर कहा—‘भोजराज उग्रसेनजी! सच पूछिये तो इस जगत् के मनुष्यों में आप लोगों का जीवन ही सफल है, धन्य है! धन्य है! क्योंकि जिन श्रीकृष्ण का दर्शन बड़े-बड़े योगियों के लिये दुर्लभ है, उन्हीं को आप लोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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