श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 1-8
दशम स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः (21) (पूर्वाध)
वेणुगीत
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शरद् ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया । सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियों में मतवाले भौंरे स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे और तरह-तरह के पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत-सब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुपति श्रीकृष्ण ने बलरामजी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी । श्रीकृष्ण की वह वंशीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी। (उसे सुनकर गोपियों का ह्रदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया) वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशीध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं । व्रज की गोपियों ने वंशीध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भौहों के इशारे और मधुर मुसकान आदि की याद हो आयी। उनकी भगवान् से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथ से निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे ? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयीं । (वे मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है। रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहें हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिन्हों से और भी रमणीय बन गया है । परीक्षित्! यह वंशीध्वनि जड़, चेतन-समस्त भूतों का मन चुरा लेती है। गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उनका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं ।
गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं—अरी सखी! हमने तो आँख वालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही—इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है ? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हाँककर वन में ले जा रहे हो या लौटकर व्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें । अरी सखी! जब वे आम की नयीं कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्ण के साँवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचो-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यासी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानों दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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