श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 83 श्लोक 20-32
दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितमोऽध्यायः(83) (उत्तरार्ध)
जब यह समाचार राजाओं को मिला, तब सब और से समस्त अस्त्र-शस्त्रों के तत्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओं के साथ मेरे पिताजी की राजधानी में आने लगे । मेरे पिताजी ने आये हुए सभी राजाओं का बल-पौरुष और अवस्था के अनुसार भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। उन लोगों ने मुझे प्राप्त करने की इच्छा से स्वयंवर-सभा में रखे हुए धनुष और बाण उठाये । उनमें से कितने ही राजा तो धनुष पर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुष को ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयों ने धनुष की डोरी को एक सिरे से बाँधकर दूसरे सिरे तक्क खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरे से बाँध न सके, उसका झटका लगने से गिर पड़े । रानीजी! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर—जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठ नरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण—इन लोगों ने धनुष पर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछली की स्थिति का पता न चला । पाण्डव वीर अर्जुन ने जल में उस मछली की परछाईं देख ली और यह भी जान लिया की वह कहाँ है। बड़ी सावधानी से उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाण ने केवल उसका स्पर्शमात्र किया ।
रानीजी! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियों का मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियों ने मुझे पाने की लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेध की चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान् ने धनुष उठाकर खेल-खेल में—अनायास ही उस पर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जल में केवल एक बार मछली की परछाईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था ।
देवीजी! उस समय पृथ्वी में जय-जयकार होने लगा और आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे । रानीजी! उसी समय मैंने रंगशाला में प्रवेश किया। मेरे पैरों में पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियों में मालाएँ गुँथी हुई थीं और मुँह पर लज्जामिश्रिती मुसकराहट थी। मैं अपने हाथों में रत्नों का हार लिये हुए थी, जो बीच-बीच में लगे हुए सोने के कारण और भी दमक रहा था। रानीजी! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकों से सुशोभित हो रहा था तथा कपोलों पर कुण्डलों की आभा पड़ने से वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमा की किरणों के समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवन से चारों और बैठे हुए राजाओं की और देखा, फिर धीरे से अपनी वरमाला भगवान् के गले में डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ की मेरा ह्रदय पहले से ही भगवान् के प्रति अनुरक्त था । मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदंग, पखावज, शंख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे ।
द्रौपदीजी! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान् को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओं को बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये । चतुर्भुज भगवान् ने अपने श्रेष्ठ चार घोंड़ों वाले रथ पर मुझे चढ़ा लिया और हाथ में शारंगधनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करने के लिये वे रथ पर खड़े हो गये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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