अड़तीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: अड़तीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद
पञ्चचुड़ा अप्सरा का नारदजी से स्त्रियों के दोषों का वर्णन करना।
युधिष्ठिरने कहा- भरतश्रेष्ठ ! मैं स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ, क्योंकि सारे दोषों की जड़ स्त्रियाँ ही हैं। वे ओच्छी बुद्धिवाली मानी गयी हैं।
भीष्मजी ने कहा- राजन ! इस विषय में देवर्षि नारद का अप्सरा पञ्चचूड़ा के साथ संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पहले की बात है, सम्पूर्ण लोकों में विचरते हुए देवर्षि नारद ने एक दिन ब्रहमलोक की अनिन्दय सुन्दरी अप्सरा पञ्चचूड़ा को देखा। मनोहर अंगों से युक्त उस अप्सरा को देखकर मुनि ने उसके सामने अपना प्रश्न रखा- ‘सुमध्यमे! मेरे हदयमें एक महान संदेह है। उसके विषय में मुझे यथार्थ बात बताओ।'
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! नारदजी के ऐसा कहने पर पंचचूड़ा अप्सरा ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया- यदि आप मुझे उस प्रश्नका उतर देने के योग्य मानते हैं और वह बताने योग्य है तो अवश्य बताउँगी। नारदजी ने कहा- भद्रे! मैं तुम्हें ऐसी बात बताने के लिये नहीं कहूँगा जो कहने योग्य न हो; मैं तुम्हारे मुँह से स्त्रियों के स्वभाव का वर्णन सुनना चाहता हूँ। भीष्मजी कहते हैं-राजन ! नारदजी का यह वचन सुनकर वह उत्तम अप्सरा बोली- ‘देवर्षे ! मैं स्त्री होकर स्त्रियों की निन्दा नहीं कर सकती। ‘संसार में जैसे स्त्रियाँ हैं उनके जैसे स्वभाव हैं, वे सब आपको विदित हैं; अत: देवर्षे! आप मुझे ऐसे कार्य में न लगावें। तब देवर्षि ने उससे कहा- ‘सुमध्यमे ! तुम सच्ची बात बताओ। झूठ बोलने में दोष लगता है। सच कहने में कोइ दोष नहीं है।' उनके इस प्रकार समझाने पर उस मनोहर हास्यवाली अप्सरा ने कहने के लिये दृढ़़ निश्चय करके स्त्रियों के सच्चे और स्वाभाविक दोषों को बताना आरम्भ किया।
पंचचूड़ा बोली- नारदजी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादा के भीतर नहीं रहती हैं। यह स्त्रियों का दोष है। स्त्रियों से बढ़कर पापिष्ठ दूसरा कोई नहीं है। स्त्रियाँ सारे दोषों की जड़ हैं, इस बातको आप भी अच्छी तरह जानते हैं। यदि स्त्रियों को दूसरों से मिलने का अवसर मिल जाये तो वे सद्गुणों में विख्यात, धनवान, अनुपम रूप-सौन्दर्यशाली तथा अपने वश में रहने वाली पतियों की भी प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं। प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पातक हैं कि हम पापी से पापी पुरुषों को भी लाज छोड़कर स्वीकार कर लेती हैं। जो पुरुष किसी स्त्री को चाहता है, उसके निकट तक पहुँचता है और उसकी थोड़ी-सी सेवा कर देता है, उसी को वे युवतियाँ चाहने लगती हैं। स्त्रियों में मर्यादा का कोई स्थान नहीं रहता। जब तक उनको कोई चाहने वाला पुरुष न मिले और परिजनों का भय बना रहे तथा पति पास हों, तभी ये नारियाँ मर्यादा के भीतर रह पाती हैं। इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है जो अगम्य हो। उनका किसी अवस्था–विशेष पर भी निश्चय नहीं रहता। कोई रुपवान हो या कुरूप; पुरुष है-इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं। स्त्रियाँ न तो भय से, न दया से, न धन के लाभ से और न जाति या कुल के सम्बन्ध से ही पतियोंके पास टिकती हैं। जो जवान हैं, सुन्दर गहने और अच्छे कपड़े पहनती हैं, ऐसी स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों के चरित्र को देखकर कितनी ही कुलवती स्त्रियॉं भी वैसी ही बननेकी इच्छा करने लगती हैं। जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियॉं हैं, जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है वे भी घर में आने-जाने वाले कुबडों, अन्धों, गूँगों और बौनों के साथ भी फँस जाती हैं। महामुनि देवर्षे ! जो पंगु हैं अथवा जो अत्यन्त घृणित मनुष्य हैं, उनमें भी स्त्रियों की आसक्ति हो जाती है। इस संसार में कोई भी पुरुष स्त्रियोंके लिये अगम्य नहीं है। ब्राम्हन ! यदि स्त्रियो को पुरुष की प्राप्ति किसी प्रकार भी संभव न हो और पति भी दूर गये हों तो वे आप में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत हो जाती हैं। पुरुषों के न मिलने से, घर के दूसरे लोगों के भयसे तथा वध और बन्धन के डर से स्त्रियॉं सुरक्षित रहती हैं। स्त्रियों का स्वभाव चंचल होता है। उनका सेवन बहुत ही कठिन काम है। इनका भाव जल्दी किसी के समझमें नहीं आता; जैसे विद्वान पुरुष की वाणी दुर्बोध होती है। अग्नि कभी ईंधन से तृप्त नहीं होती, समुन्द्र कभी नदियों से तृप्त नहीं होता, मृत्यु समस्त प्राणियों को एक साथ पा जाये तो भी उनसे तृप्त नहीं होती; इसी प्रकार सुन्दर नेत्रोंवाली युवतियॉं पुरुषों से कभी तृप्त नहीं होतीं। देवर्षे! सम्पूर्ण रमणियोंके सम्बन्ध में दूसरी भी रहस्य की बात यह है कि किसी मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती हैं। सम्पूर्ण कामनाओं के दाता तथा मनचाही करनेवाला पति भी यदि उनकी रक्षा में तत्पर रहने वाला हो तो वे अपने पति के शासन को भी सहन नहीं कर सकतीं। वे न तो काम-भोग की प्रचुर सामग्री को, न अच्छे-अच्छे गहनों को और न उत्तम घरों को ही उतना अधिक महत्व देती हैं, जैसा कि रति के लिये किये गये अनुग्रह को। यमराज, वायु, मृत्यु, पाताल, बड़वानल, छुरे की धार, विष, सर्प और अग्नि-ये सब विनाश के हेतु एक तरफ और स्त्रियॉं अकेली एक तरफ बराबर हैं। नारद ! जहाँ से पाँचों महाभूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से विधाता ने सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है तथा जहाँ से पुरुषों और स्त्रियों का निर्माण हुआ है, वहाँ से स्त्रियों में ये दोष भी रचे गये हैं (अर्थात ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं)।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तगर्त दानधर्मपर्वमें पंचचूड़ा और नारदका संवादविषयक अड़तीसवॉं अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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