श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 84 श्लोक 25-37
दशम स्कन्ध: चतुरशीतितमोऽध्यायः(84) (उत्तरार्ध)
ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्था में भी इन्द्रियों की प्रवृत्ति रूप माया से चित्त मोहित होकर नाममात्र के विषयों में भटकने लगता है। उस समय भी चित्त के चक्कर से विवेक शक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता की आप इस जाग्रत् संसार से परे हैं । प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधना के द्वारा आपके उन चरणकमलों को ह्रदय में धारण करते हैं, जो समस्त आप-राशि को नष्ट करने वाले गंगाजल के भी आश्रय-स्थान हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है की आज हमें उन्हीं का दर्शन हुआ है। प्रभो! हम आपके भक्त हैं, आप हम पर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पद की प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती हैं, जिनका लिंग शरीररुप जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्ति के द्वारा नष्ट हो जाता है ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजर्षे! भगवान् की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्र से तथा धर्मराज-युधिष्ठिरजी से अनुमति लेकर उन लोगों ने अपने-अपने आश्रम पर जाने का विचार किया । परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जाने का विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकड़कर बड़ी नम्रता से निवेदन करने लगे ।
वसुदेवजी ने कहा—ऋषियों! आप लोग सर्वदेवस्वरुप हैं। मैं आप लोगों को नमस्कार करता हूँ। आप लोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह की जिन कर्मों के अनुष्ठान से कर्मों और कर्मवासनाओं का आत्यन्तिक नाश—मोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये ।
नारदजी ने कहा—ऋषियों! यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है की वसुदेवजी श्रीकृष्ण को अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासा के भाव से अपने कल्याण का साधन हमलोगों से पूछ रहे हैं । संसार में बहुत पास रहना मनुष्यों के अनादर का कारण हुआ करता है। देखते हैं, गंगातट पर रहने वाला पुरुष गंगाजल को छोड़कर अपनी शुद्धि के लिये दूसरे तीर्थ में जाता है । श्रीकृष्ण की अनुभूति समय के फेर से होने वाली जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय से मिटने वाली नहीं है। वह स्वतः किसी दूसरे निमित्त से, गुणों से और किसी से भी क्षीण नहीं होती । उनका ज्ञानमय स्वरुप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दुःखादि कर्मफल तथा सत्व आदि गुणों के प्रवाह से खण्डित नहीं है। वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपने को अपनी ही शक्तियों—प्राण आदि से ढक लेते हैं, तब मूर्ख लोग ऐसा समझते हैं की वे ढक गये, जैसे बादल, कुहरा या ग्रहण के द्वारा अपने नेत्रों ढक जाने पर सूर्य को ढका हुआ मान लेते हैं ।
परीक्षित्! इसके बाद ऋषियों ने भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओं के सामने ही वसुदेवजी को सम्बोधित करके कहा— ‘कर्मो के द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलों का अत्यान्तिक नाश करने का सबसे अच्छा उपाय यह है की यज्ञ आदि के द्वारा समस्त यज्ञों के अधिपति भगवान् विष्णु की श्रद्धा-पूर्वक आराधना करे ।
त्रिकालदर्शी ज्ञानियों ने शास्त्र दृष्टि से यही चित्त की शान्ति उपाय, सुगम मोक्ष साधन और चित्त में आनन्द का उल्लास करने वाला धर्म बतलाया है । अपने न्यायार्जित धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान् की आराधना करना ही द्विजाति—ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य ग्रहस्थ के लिये परम कल्याण का मार्ग है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-