श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 27-37
एकादश स्कन्ध: द्वितीयोऽध्यायः (2)
॥ वे नवों योगीश्वर अपने अंगों की कान्ति से इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रम्हाजी के पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमि ने विनय से झुककर परम प्रेम के साथ उनसे प्रश्न किया ।
विदेहराज निमि ने कहा—भगवन्! मैं ऐसा समझता हूँ कि आप लोग मधुसुदन भगवान् के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान् के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करने के लिये विचरण किया करते हैं । जीवों के लिये मनुष्य-शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्यु का भय सिर पर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है। इसिये अनिश्चित मनुष्य-जीवन में भगवान् के प्यारे और उनको प्यार करने वाले भक्तजनों का, संतों का दर्शन तो और भी दुर्लभ है । इसिलए त्रिलोकपावन महात्माओं! हम आप लोगों से यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याण का स्वरुप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसार में आधे क्षण का सत्संग भी मनुष्यों के लिये परम निधि है।
योगीश्वरों! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मों का उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करने वाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं ।
देवर्षि नारदजी ने कहा—वसुदेवजी! जब राजा निमि ने उन भगवत्प्रेमी संतों से यह प्रश्न किया, तब उन लोगों ने बड़े प्रेम से उनका और उनके प्रश्न का सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजों के साथ बैठे हुए राजा निमि से बोले ।
पहले उन नौ योगीश्वरों में से कविजी ने कहा—राजन्! भक्तजनों के ह्रदय से कभी दूर न होने वाले अच्युत भगवान् के चरणों की नित्य-निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याण—अत्यान्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जाने के कारण जिन लोगों की चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासना का अनुष्ठान करने पर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है । भगवान् ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात् अपनी प्राप्ति के लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो ॥ ३४ ॥ राजन्! इन भागवतधर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़ने पर भी अर्थात् विधि-विधान में त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग से स्खलित ही होता है और न तो पतित—फल से वञ्चित ही होता है । (भागवत धर्म का पालन करने वाले के लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करे।) वह शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाव वश जो-जो करे, वह सब परम पुरुष भगवान् नारायण के लिये ही है—इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवत धर्म है) ।
ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरुप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकार का भ्रम—विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तु में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरु को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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