श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 86 श्लोक 27-40
दशम स्कन्ध: षडशीतितमोऽध्यायः(86) (उत्तरार्ध)
विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचार्री पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान् श्रीकृष्ण और ऋषि-मुनि मेरे घर पधारे हैं सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आराम से उन पर बैठ गये। उस समय बहुलाश्व की विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्ति के उद्रेक से उनका ह्रदय भर आया था। नेत्रों में आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियों के चरणों में नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्ब के साथ उनके चरणों का लोकपावन जल सिर पर धारण किया और फिर भगवान् एवं भगवत्स्वरूप ऋषियों को गन्ध, माला, वस्त्र, अलंकार, धूप, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की । जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्द से धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणी से भगवान् की स्तुति करने लगे ।
राजा बहुलाश्व ने कहा—‘प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं। इसी से आपने हम लोगों को दर्शन देकर कृतार्थ किया है। भगवन्! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरुप बलरामजी, अर्द्धांगिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रम्हा से भी बढ़कर प्रिय है। अपने उन वचनों को सत्य करने के लिये ही आपने हम लोगों को दर्शन दिया है ।
भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेमवशता को जानकर भी आपके चरणकमलों का परित्याग कर सके ? प्रभो! जिन्होंने जगत् की समस्त वस्तुओं का एवं शरीर आदि का भी मन से परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियों को आप अपने तक को भी दे डालते हैं । आपने यदुवंश में अवतार लेकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े हुए मनुष्यों को उससे मुक्त करने के लिये जगत् में ऐसे विशुद्ध यश का विस्तार किया है, जो त्रिलोकी के पाप-ताप को शान्त करने वाला है । प्रभो! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्य की निधि हैं; सबके चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये आप सच्चीदानन्दस्वरुप परमब्रम्ह हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्ति का विस्तार करने के लिये आप ही नारायण ऋषि के रूप में तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ । एकरस अनन्त! आप कुछ दिनों तक मुनिमण्डली के साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणों की धूल से इस निमिवंश को पवित्र कीजिये’। परीक्षित्! सबके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्व की यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियों का कल्याण करते हुए कुछ दिनों तक वहीं रहे ।
प्रिय परीक्षित्! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डली के पधारने पर आनन्दमग्न हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राम्हण भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियों को अपने घर आया देखकर आनन्द विह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे । श्रुतदेव ने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उन पर भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियों को बैठाया, स्वागत-भाषण आदि के द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे । परीक्षित्! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान् और ऋषियों के चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियों को सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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