श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 12-20
एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
राजन्! उस समय जैसे बिना ईधन के आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रम्हा अपने ब्रम्हाण्ड-शरीर को छोड़कर सूक्ष्मस्वरुप अव्यक्त में लीन हो जाते हैं—यह भगवान् की माया है । वायु पृथ्वी की गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जल के रूप में हो जाती है और जब वही वायु जल के रस को खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्नि बन जाता है—यह भगवान् की माया है । जब अन्धकार अग्नि का रूप छीन लेता है, तब वह अग्नि वायु में लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायु की स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाश में लीन हो जाता है—यह भगवान् की माया है । राजन्! तदनन्तर काल रूप ईश्वर आकाश के शब्द गुण को हरण कर लेता है जिससे वह तामस अहंकार में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहंकार में लीन होती हैं। मन सात्विक अहंकार से उत्पन्न देवताओं के साथ सात्विक अहंकार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकार के कार्यों के साथ अहंकार महतत्व में लीन हो जाता है। महतत्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रम्ह में लीन होती है। फिर इसी के उलटे क्रम से सृष्टि होती है—यह भगवान् की माया है ।
यह सृष्टि, स्थति और संहार करने वाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ?
राजा निमि ने पूछा—महर्षिजी! इस भगवान् की माया को पार करना उन लोगों के लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि जो लोग शरीर आदि में आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार सकते हैं ?
अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले—राजन्! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनों में बँधे हुए संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष माया के पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मों का फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुख बदले दुःख पाते हैं और दख-निवृत्ति के स्थान पर दिनों दिन दुःख बढ़ता ही जाता है । एक धन को ही लो। इससे दिन-पर-दिन दुःख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्मा के लिये तो यह मृत्युस्वरुप ही है। जो इसकी उलझनों में पड़ जाता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? इसी प्रकार जो मनुष्य माया से पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरने के बाद प्राप्त होने वाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं। क्योंकि इस लोग की वस्तुओं के समान वे भी कुछ सीमित कर्मों के सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वी के छोटे-छोटे राजाओं के समान बराबर वालों से होड़ अथवा लाग-डांट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुख वालों के प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेष का भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्य वालों के प्रति घृणा रहती है एवं कर्मों का फल पूरा हो जाने पर वहाँ से पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाश का भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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