श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 21-31
एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
इसलिये जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो, उसे गुरुदेव की शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रम्ह—वेदों के पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रम्ह में परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभव के द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहार के प्रपंच में विशेष प्रवृत्त न हो ।
जिज्ञासु को चाहिये कि गुरु को ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपट भाव से सेवा करे और उनके पास रहकर भागवत धर्म की—भगवान् को प्राप्त कराने वाले भक्ति-भाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनों से सर्वात्मा एवं भक्त को अपने आत्मा का दान करने वाले भगवान् प्रसन्न होते हैं ।
पहले शरीर, सन्तान आदि में मन की आसक्ति सीखें। फिर भगवान् के भक्तों से प्रेम कैसा करना चाहिये—यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियों के प्रति यथा योग्य दया, मैत्री और विनय की निष्कपट भाव से शिक्षा ग्रहण करें ।
मिट्टी, जल आदि से बाह्य शरीर की पवित्रता, छल-कपट आदि के त्याग से भीतर की पवित्रता, अपने धर्म का अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रम्हचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वंदों में हर्ष विषाद से रहित होना सीखे ।
सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओं में चेतन रूप से आत्मा और नियन्ता रूप से ईश्वर को देखना, एकान्त सेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे-पुराने चिथड़े, जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार मिल जाय, उसी में सन्तोष करना सीखे ।
भगवान् की प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले शास्त्रों में श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्र की निन्दा न करना, प्राणायाम के द्वारा मन का, मौन के द्वारा वाणी का और वासनाहीनता के अभ्यास से कर्मों का संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थिर रखना और मन को कहीं बाहर न जाने देना सीखे ।
राजन्! भगवान् की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान् के लिये करना सीखे ।
यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान् के चरणों में निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ।
जिन संत पुरुषों ने सच्चिदानन्दस्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण का अपने आत्मा और स्वामी के रूप में साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जंगम दोनों प्रकार के प्राणियों की सेवा; विशेष करके मनुष्यों की, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनों की और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतों की करना सीखें ।
भगवान् के परम पावन यश के सम्बन्ध में ही एक-दूसरे से बातचीत करना और इस प्रकार के साधकों का इकट्ठे होकर आपस में प्रेम करना, आपस में सन्तुष्ट रहना और प्रपंच से निवृत्त होकर आपस में ही आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करना सीखे ।
राजन्! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं। सब उन्हीं का स्मरण करें और एक-दूसरे को स्मरण करावें। इस साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते-करते प्रेम-भक्ति का उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेक से पुलकित-शरीर धारण करते हैं ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-