महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-17
एकोनचत्वारिंश (39) अध्याय: कर्ण पर्व
शल्य का कर्ण के प्रति अत्यन्त आक्षेप पूर्ण वचन कहना
शल्य बोले-सूतपुत्र ! तुम किसी परुष को हाथी के समान हृष्ट-पुष्ट छः बैलों से जुता हुआ सोने का रथ न दो। आज अवश्य ही अर्जुन को देखोगे। राधापुत्र तुम मूखर्ता से ही यहाँ कुबेर के समान धन लुटा रहै हो,आज अर्जुन को तो तुम बिना यत्न किएही देख लोगे। मूढ़ पुरुषों के समान तुम अपना बहु कुछ धन जो दूसरों को दे रहै हो,इससे जान पड़ता है कि अपात्र को धन का दान देने से जो दोष पैदा होते हैं,उन्हें मोहवश तुम नहीं समझ रहै हो। सूत ! तुम जो बहुत धन देने की यहाँ घोषणा कर रहै हो,निश्चय ही उसके द्वारा नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर सकते हो;अतः तुम उन धन-वैभवों द्वारा यज्ञों का ही अनुष्ठान करो। और जो तुम मोहवश श्रीकृष्ण तथा अर्जुन को मारना चाहते हो,वह मनसूबा तो व्यर्थ ही है;क्योंकि हमने यह बात कभी नहीं सुनी है कि किसी गीदड़ ने युद्ध में दो सिंहों को मार गिराया हो। तुम ऐसी चीज चाहते हो,जिसकी अबतक किसी ने इच्छा नहीं की थी। जान पड़ता हैं तुम्हारे कोई सुहृद् नहीं है,जो शीघ्र ही आकर तुम्हें जलती आग में गिरने से रोक नहीं रहै हैं। तुम्हें कर्तव्य और अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं है। निःसंदेह तुम्हें काल ने पका दिया है। ( अतः तुम पके हुए फल के समान गिरने वाले ही हो );अन्यथा जो जीवित रहना चाहता है,ऐसा कौन पुरुष ऐसी बहुत-सी-न सुनने योग्य अटपटांग बातें कह सकता है ? जैसे कोई गले में पत्थर बाँधकर दोनों हाथें से समुद्र पार करना चाहै अथवा पहाड़ की चोटी से पृथ्वी पर कूदने की इच्छा करे,ऐसी ही तुमहारी सारी चेष्टा और अभिलाषा है। यदि तुम कल्याण प्राप्त करना चाहते हो तो व्यूह रचना पूर्वक खड़े हुए समस्त सैनिकों के साथ सुरक्षित रहकर अर्जुन से युद्ध करो। दुर्योधन के हित के लिए ही मै ऐसा कह रहा हूँ,हिंसा भाव से नहीं। यदि तुम्हें जीने की इच्छा है तो मेरे इस कथन पर विश्वास करो।
कर्ण बोला-शल्य ! मैं अपने बाहुबल का भरोसा करके रणक्षेत्र में अर्जुन को पाना चाहता हूँ;परंतु तुम तो मँह से मित्र बने हुए वास्तव में शत्रु हो,जो मुझे यहाँ डराना चाहते हो। परंतु मुझेइस अभिलाषा से आज कोई भी पीछे नहीं लौटा सकता। वज्र उठाये हुए इन्द्र भी मुझे किसी तरह इस निश्चय से डिगा नहीं सकते,फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है ?
संजय कहते हैं-राजन् ! कर्ण की यह बात समाप्त होते ही मद्रराज शल्य उसे अत्यन्त कुपित करने की इच्छा से पूनः इस प्रकार उत्तर देने लगे-। कर्ण ! अर्जुन के वेग से युक्त हो उनकी प्रत्यंचा से प्रेरित और सुरक्षित हाथों से छोड़े हुए तीखी धार वाले कंक पत्र विभूषित बाण जब तुम्हारे शरीर में घुसने लगेंगे,तब जो तुम अर्जुन को पूछते फिरते हो,इसके लिये पश्चाताप करोगे। सूतपुत्र ! जब सव्यसाची कुनती कुमार अर्जुन अपने हाथ में दिव्य धनुष लेकर शत्रु सेना को तपाते हुए पैने बाणों द्वारा तुम्हें रौंदने लगेंगे,तब तुम्हें अपने किये पर पछतावा होगा। जैसे अपनी माँ की गोद में सोया हुआ कोई बालक चन्द्रमा को पकड़ लाना चाहता हो,उसी प्रकार तुम भी रथ पर बैठे हुए तेजसवी अर्जुन को आज मोहवश परास्त करना चाहते हो। कर्ण ! अर्जुन का पराक्रम अत्यन्त तीखी धारवाले त्रिशूल के समान है। उन्हीं अर्जुन के साथ आज जो तुम युद्ध करना चाहते हो,वह दूसरे शब्दों में यों है कि तुम पैनी धार चाले त्रिशूल को लेकर उसी से अपने सारे अंगों का रगड़ना या खुजलाना चाहते हो। सूतपुत्र ! जैसे बालक,मूढ़ और वेग से चैकड़ी भरने-वाला क्षुद्र मृग क्रोध में भरे हुए विशालकाय,केसर युक्त सिंह को ललकारे,तुम्हारा आज यह अर्जुन का युद्ध के लिए आह्वान करना वैसा ही है। सूतपुत्र ! तुम महापराक्रमी राजकुमार अर्जुन का आह्वानन करो। जैसे वन में मांस-भक्षण से तृप्त हुआ गीदड़ महाबली सिंह के पास जाकर नष्ट हो जाता है,उसी प्रकार तुम भी अर्जुन से भिड़कर विनाश के गर्त में न गिरो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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