इकतालीसवॉं अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: इकतालीसवॉं अध्याय: श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद
विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना और गुरु से वरदान प्राप्त करना ।
भीष्मजी कहते हैं- राजन! तदनन्तर किसी समय देवराज इन्द्र ‘यही ॠषिपत्नी रुचि को प्राप्त करने का अच्छा अवसर है’ –ऐसा सोचकर दिव्य रूप एवं शरीर धारण किये उस आश्रम में आये। नरेश्वर! वहाँ इन्द्र ने अनुपम लुभावना रूप धारण करके अत्यन्त दर्शनीय होकर उस आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि विपुल का शरीर चित्रलिखित की भांति निश्चेष्ट पड़ा है और उनके नेत्र स्थिर हैं। दूसरी ओर स्थूल नितम्ब एवं पीन पयोधरों से सुशोभित, विकसित कमलदल के समान विशाल नेत्र एवं मनोहर कटाक्ष वाली पूर्ण चन्द्रानना रुचि बैठी हुई दिखायी दी। इन्द्र को देखकर वह सहसा उनकी अगवानी के लिये उठने की इच्छा करने लगी। उनका सुन्दर रूप देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ था, मानो वह उनसे पूछना चाहती थी कि आप कौन हैं? नरेन्द्र ! उसने ज्यों ही उठने का विचार किया त्यों ही विपुलने उनके शरीर को स्त्ाब्ध कर दिया। उनके काबू में आ जाने के कारण वह हिल भी न सकी। तब देवराज इन्द्र ने बड़ी मधुर वाणी में उसे समझाते हुए कहा- ‘पवित्र मुस्कान वाली देवी ! मुझे देवताओं का राजा इन्द्र समझो ! मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ तक आया हूँ। ‘तुम्हारा चिन्तन करने से मेरे हदय में जो काम उत्पन्न हुआ है वह मुझे बड़ा कष्ट दे रहा है। इसी से मैं तुम्हारे निकट उपस्थित हूँ। सुन्दरी ! अब देर न करो, समय बीता जा रहा है।' देवराज इन्द्र की यह बात गुरुपत्नी के शरीर में बैठे हुए विपुल मुनि ने भी सुनी और उन्होंने इन्द्र को देख भी लिया। राजन ! यह अनिन्द्य सुन्दरी रुचि विपुल के द्वारा स्तम्भित होनेके कारण न तो उठ सकी और न इन्द्र को कोई उतर ही दे सकी। प्रभो ! गुरुपत्नी का आकार एवं चेष्टा देखकर भृगुश्रेष्ठ विपुल उसका मनोभाव ताड़ गये थे, अत: उन महातेजस्वी मुनि ने योग द्वारा उसे बलपूर्वक काबू में रखा। उन्होंने गुरुपत्नी रुचि की सम्पूर्ण इन्द्रियों को योग-सम्बन्धी बन्धनों से बॉंध लिया था। राजन ! योगबल से मोहित हुई रुचिको काम-विकार से शून्य देख शचीपति इन्द्र लज्जित हो गये और फिर उससे बोले- ‘सुन्दरी ! आओ, आओ।‘ उनका आवाहन सुनकर वह फिर उन्हें कुछ उत्तर देने की इच्छा करने लगी। यह देख विपुल ने गुरुपत्नी की उस वाणी को जिससे वह कहना चाहती थी, बदल दिया। उसके मुँह से सहसा यह निकल पड़ा- ‘अजी ! यहाँ तुम्हारे आने का क्या प्रयोजन है?’ उस चन्द्रोपम मुख से जब यह संस्कृत वाणी प्रकट हुई तब वह पराधीन हुई रुचि वह वाक्य कह देने के कारण बहुत लज्जित हुई। वहाँ खड़े हुए इन्द्र उसकी पूर्वोक्त बात सुनकर मन-ही-मन बहुत दु:खी हुए। प्रजानाथ ! उसके मनोविकार एवं भाव-परिर्वतन को लक्ष्य करके सहस्त्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र ने दिव्य दृष्टि से उसकी ओर देखा। फिर तो उसके शरीर के भीतर विपुल मुनि पर उनकी दृष्टि पड़ी। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब्ा दिखायी देता है उसी प्रकार वे गुरुपत्नी के शरीर में परिलक्षित हो रहे थे। प्रभो ! घोर तपस्या से युक्त विपुल मुनि को देखते ही इन्द्र शाप के भय से संत्रस्त हो थर-थर काँपने लगे। इसी समय महातपस्वी विपुल गुरुपत्नी को छोड़कर अपने शरीर में आ गये और डरे हुए इन्
विपुल ने कहा- ‘पापात्मा पुरन्दर ! तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है। तु सदा इन्द्रियोंका गुलाम बना रहता है। यदि यही दशा रही तो अब देवता तथा मनुष्य अधिक काल तक तेरी पूजा नहीं करेंगे। इन्द्र ! क्या तू उस घटना को भूल गया? क्या तेरे मन में उसकी याद नहीं रह गयी है? जब कि महर्षि गौतम ने तेरे सारे शरीर में भग के (हजार) चिहन बनाकर तुझे जीवित छोड़ था। मैं जानता हूँ कि तू मुर्ख है, तेरा मन वश में नहीं और तू महाचंचल है। पापी मूढ़ ! यह स्त्री मेरे द्वारा सुरक्षित है। तू जैसे आया है, उसी तरह लौट जा। मूढ़चित इन्द्र ! मैं अपने तेज से तुझे जलाकर भस्म कर सकता हूँ। केवल दया करके ही तुझे इस समय जलाना नहीं चाहता। मेरे बुद्धिमान गुरु बड़े भयंकर हैं। वे तुझ पापात्मा को देखते ही आज क्रोध से उदीप्त हुई दृष्टिद्वारा दग्ध कर डालेंगे। इन्द्र ! आजसे फिर कभी ऐसा काम न करना। तुझे ब्राहामणों का सम्मान करना चाहिये, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि तुझे ब्रम्ह तेज से पीड़ित होकर पुत्रों और मन्त्रियों सहित काल के गाल में जाना पड़े। मैं अमर हूँ- ऐसी बुद्धि का आश्रय लेकर यदि तू स्वेच्छाचार में प्रवृत हो रहा है तो (मैं तुझे सचेत किये देता हूँ) यों किसी तपस्वी का अपमान न किया कर; क्योंकि तपस्या से कोई भी कार्य असाध्य नहीं है (तपस्वी अमरों को भी मार सकता है)। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! महात्मा विपुल का वह कथन सुनकर इन्द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उत्तर न देकर वहीं अन्तर्धान हो गये। उनके गये अभी एक मूहूर्त बीतने पाया था कि महातपस्वी देव शर्मा इच्छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रमपर लौट आये। राजन ! गुरु के आने पर उनका प्रिय कार्य करने वाले विपुल ने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्वी भार्या रुचि को उन्हें सौंप दिया। शान्त चितवाले गुरु प्रेमी विपुल गुरुदेव को प्रणाम करके पहले की ही भांति निर्भीक होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए। जब गुरुजी विश्राम करके अपनी पत्नी के साथ बैठे,तब विपुल ने वह सारी करतूत उन्हें बतायी। यह सुनकर प्रतापी मुनि देव शर्मा विपुल के शील, सदाचार, तप और नियम से बहुत संतुष्ट हुए। विपुल की गुरु सेवावृति, अपने प्रति भक्ति और धर्मविषयक दृढ़ता देखकर गुरु ने ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रशंसा की। परम बुद्धिमान धर्मात्मा देव शर्माने अपने धर्म-परायण शिष्य विपुल को पाकर उन्हें इच्छानुसार वर मॉंगने को कहा। गुरुवत्सल विपुल ने गुरु से यही वर मॉंगा कि ‘मेरी धर्म में निरन्तर स्थिति बनी रहे।‘ फिर गुरु की आज्ञा लेकर उन्होंने सर्वोतम तपस्या आरम्भ की। महातपस्वी देव शर्मा भी बल और वृत्रासुर का वध करने वाले इन्द्र से निर्भय हो पत्नी सहित उस निर्जन वन में विचरने लगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्व में विपुल का उपाख्यानविषयक इकतालीसवॉं अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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