चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 189-203 का हिन्दी अनुवाद
‘जिनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्रमय उज्ज्वल एवं निर्मल मुकुट बंधा हुआ है, वे मेरे स्वामी भगवान पशुपति जब तक प्रसन्न नहीं होते हैं, तब तक मैं जरा – मृत्यु और जन्म के सैकड़ों आघातों से प्राप्त होने वाले दैहिक दु:खों का भार ढोता रहूंगा। ‘जो अपने नेत्रभूत सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि की प्रभा से उद्भासित होते हैं, त्रिभुवन के साररूप हैं, जिनसे बढ़कर सारतत्व दूसरा नहीं है, जो जगत के आदिकरण, अद्वितीय तथा अजर-अमर हैं, उन भगवान रूद्र को भक्ति भाव से प्रसन्न किये बिना कौन पुरूष इस संसार में शांति पा सकता है। ‘यदि मेरे दोषों से मुझे बारंबार इस जगत में जन्म लेना पड़ा तो मेरी यही इच्छा है कि उस-उस प्रत्येक जन्म में भगवान शिव में मेरी अक्षय भक्ति हो’। इन्द्र ने पूछा – ब्रह्मान् ! कारण के भी कारण जगदीश्वर शिव की सत्ता में क्या प्रमाण है, जिससे तुम शिव के अतिरिक्त दूसरे किसी देवता का कृपा-प्रसाद ग्रहरण करना नहीं चाहते ? उपमन्यु ने कहा – देवराज ! ब्रह्मावादी महात्मा जिन्हें विभिन्न मतों के अनुसार सत्-असत्, व्यक्त–अव्यक्त, नित्य, एक और अनेक कहते हैं, उन्ही महादेव जी से हम वर मांगेगे। जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, ज्ञान ही जिनका ऐश्वर्य है तथा जो चित्त की चिन्तनशक्ति से भी परे हैं और इन्हीं कारणों से जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, उन्हीं महादेवजी से हम वर प्राप्त करेंगे। योगी लोग महादेवजी के समस्त ऐश्वर्य को ही नित्य सिद्ध और अविनाशी बताते हैं । वे कारण रहित हैं और उन्हीं से समस्त कारणों की उत्पत्ति हुई है । अत: महादेव जी की ऐसी महिमा है, इसलिये हम उन्हीं से वर मांगते हैं। जो अज्ञानान्धकार से परे चिन्मय परमज्योति: स्वरूप हैं, तपस्वी जनों के परम तप हैं तथा जिनका ज्ञान प्राप्त करके ज्ञानी पुरूष कभी शोक नहीं करते हैं, उन्हीं भगवान शिव से हम वर प्राप्त करना चाहते हैं। पुरंदर ! जो समपूर्ण भूतों के उत्पादक तथा उनके मनोभाव को जानने वाले हैं, समस्त प्राणियों के पराभव (विलय) – के भी जो एकमात्र स्थान हैं तथा जो सर्वव्यापी और सब कुछ देने में समर्थ हैं, उन्हीं महादेवजी की मैं पूजा करता हूं। जो युक्ति वाद से दूर हैं, जो अपने भक्तों को सांख्य और योग का परम परम प्रयोजन (आत्यन्तिक दु:खनिवृति और ब्रह्मासाक्षात्कार) प्रदान करने वाले हैं, तत्वज्ञ पुरूष जिनकी सदा उपासना करते हैं, उन्हीं महादेवजी से हम वर के लिये प्रार्थना करते हैं। मधवन् ! ज्ञानी पुरूष जिन्हें देवेश्वर इन्द्र रूप तथा सम्पूर्ण भूतों के गुरूदेव बताते हैं, उन्हीं से हम वर लेना चाहते हैं। जिन्होनें पूर्वकाल में आकाशव्यापी ब्रह्माण्ड एवं लोकस्त्रष्टा देवेश्वर ब्रह्मा को उतपन्न किया, उन्हीं महादेवजी से हम वर प्राप्त करना चाहते हैं। देवराज ! जो अग्नि, जल, वायु पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – इन सबका स्त्रष्टा हो, वह परमेश्वर से भिन्न दूसरा कौन पुरूष है ? यह बताओ। शक्र ! जो मन, बुद्धि, अहंकार, पंचतन्मात्रा और दस इन्द्रिय–इन सबकी सृष्टि कर सके, ऐसा कौन पुरूष है जो भगवान शिव से भिन्न अथवा उत्कृष्ट हो ? यह बताओ। ज्ञानी महात्मा ब्रह्माजी को ही सम्पूर्ण विश्व का स्त्रष्टा बताते हैं । परंतु वे देवेश्वर महादेवजी की आराधना करके ही महान ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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