चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 137-155 का हिन्दी अनुवाद
वे विशवरूपधारी महेश्वर समस्त प्राणियों के हृदय मन्दिर में विराजमान हैं । वे भक्तों पर कृपा करने के लिये किस प्रकार दर्शन देते हैं ? यह शंकर जी के दिव्य एक कल्याणमय चरित्र का का वर्णन करने वाले मुनियों के मुख से जैसा मैंने सुना है वह बताउंगी। वत्स ! उन्होने ब्रह्माणों पर अनुग्रह करने के लिये देवताओं द्वारा कथित जो-जो रूप ग्रहण किये हैं, उन्हें संक्षेप से सुनो । वत्स ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वे सारी बातें मैं तुम्हें बताउंगी। ऐसा कहकर माता फिर कहने लगी - भगवान शिव ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, रूद्र, आदित्य, अश्विनी कुमार तथा सम्पूर्ण देवताओं का शरीर धारण करते हैं। वे भगवान पुरूषो, देवांगनाओं, प्रेतों, पिशाचों, किरातों, शबरों, अनेकानेक जल जन्तुओं तथा जंगली भीलों के भी रूप ग्रहण कर लेते हैं। कूर्म, मत्स्य, शं, नये-नये पल्लवों के अंकुर से सुशोभित होने वाले वसंत आदि के रूपों में भी वे ही प्रकट होते हैं । वे महादेवजी यक्ष, राक्षस, सर्प, दैत्य, दानव और पाताल वासियों का भी रूप धारण करते हैं। वे व्याघ्र, सिंह मृग, तरक्षु, रीछ, पक्षी, उल्लू, कुत्ते और सियारों के भी रूप धारण कर लेते हैं। हंस, काक, मोर गिरगिट, सारस, बगले, गीध और चक्रांग (हंसविशेष) - के भी रूप वे महादेव जी धारण करते हैं । पर्वत, गाय, हाथी, घोड़े, उंट और गदहे के आकार में भी वे प्रकट हो जाते हैं। वे बकरे और शार्दूल के रूप में उपलब्ध होते हैं । नाना प्रकार के मृगों - वन्य पशुओं के भी रूप धारण करते हैं तथा भगवान शिव दिव्य पक्षियों के भी रूप धारण कर लेते हैं। वे द्विजों के चिन्ह दण्ड, छत्र और कुण्ड (मण्डलु) धारण करते हैं । कभी छ: मुख और कभी बहुत-से मुखवाले हो जाते हैं । कभी तीन नेत्र धारण करते हैं । कभी बहुत-से मस्तक बना लेते हैं। उनके पैर और कटि भाग अनेक हैं । वे बहुसंख्यक पेट और मुख धारण करते हैं । उनके हाथ और पार्श्व भाग भी अनेकानेक हैं । अनेक पार्षदगण उन्हें सब ओर से घेरे रहते हैं। वे ऋषि और गन्धर्व रूप हैं । सिद्ध और चरणों के भी रूप धारण करते हैं। उनका सारा शरीर भस्म रमाये रहने से सफेद जान पड़ता है । वे ललाट में अर्द्धचन्द्र का आभूषण धारण करते हैं। उनके पास अनेक प्रकार के शब्दों का घोष होता रहता है । वे अनेक प्रकार की स्तुतियों से सम्मानित होते हैं, समस्त प्राणियों का संहार करते हैं, स्वयं सर्वस्वरूप हैं तथा सबके अन्तरात्मारूप से सम्पूर्ण लोकों में प्रतिष्ठित हैं। वे सम्पूर्ण जगत के अन्तरात्मा, सर्वव्यापी और सर्ववादी हैं, उन भगवान शिव को सर्वत्र और सम्पूर्ण देहधारियों के हृदय में विराजमान जानना चाहिये। जो जिस मनोरथ को चाहता है और जिस उद्देश्य से उसके द्वारा भगवान की अर्चना की जाती है, देवेश्वर भगवान शिव वह सब जानते हैं । इसलिये यदि तुम कोई वस्तु चाहते हो तो उन्हीं की शरण लो। वे कभी आनन्दित रहकर आनन्द देते, कभी कुपित होकर कोप प्रकट करते ओर कभी हुंकार करते हैं, अपने हाथों में चक्र, शूल, गदा, मुसल, खड्ग और पट्टीश धारण करते हैं। वे धरणीधर शेषनाग रूप हैं, वे नाग की मेखला धारण करते हैं । नागमय कुण्डल से कुण्डलधारी होते हैं। नागों का ही यज्ञोपवीत धारण करते हैं तथा नागचर्म का ही उत्तरीय (चादर) लिये रहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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