श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-7
एकादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)
भगवान् के अवतारों का वर्णन
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो! भगवान् स्वतन्त्रता से अपने भक्तों की भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आप लोग कृपा करके भगवान की उन लीलाओं का वर्णन कीजिये, जो वे अब तक कर चुके हैं, कर रहे हैं या करेंगे।
अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी ने कहा—राजन्! भगवान् अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणों को गिन लूँगा, वह मुर्ख हैं, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वी के धूलि-कणों को गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियों के आश्रय भगवान् के अनन्त गुणों का कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता । भगवान् ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतों की अपने-आप से अपने-आप में सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रम्हाण्ड का निर्माण करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूप से नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्यों के फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायण को ‘पुरुष’ नाम से कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है । उन्हीं के इस विराट् ब्रम्हाण्ड शरीर में तीनों लोक स्थित हैं। उन्हीं की इन्द्रियों से समस्त देहधारियों की ज्ञानेद्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरुप से ही स्वतःसिद्ध ज्ञान का संचार होता है। उनके स्वास-प्रश्वास से सब शरीरों में बल आता है तथा इन्द्रियों में ओज (इन्द्रियों कि शक्ति) और कर्म करने की शक्ति प्राप्त होती है। उन्हीं एक सत्व आदि गुणों से संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीर के जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं । पहले-पहल जगत् की उत्पत्ति के लिये उनके रजोगुण के अंश से ब्रम्हा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसार की स्थिति के लिये अपने सत्वांश से धर्म तथा ब्राम्हणों के रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुण के अंश से जगत् के संहार के लिये रूद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हीं से परिवर्तनशील प्रजा की उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ।
दक्ष प्रजापति की एक कन्या का नाम था मूर्ति। वह धर्म की पत्नी थी। उसके गर्भ से भगवान ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूप में अवतार लिया। उन्होंने आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कराने वाले उस भगवदाराधनरूप कर्म का उपदेश किया, जो वास्तव में कर्मबन्धन से छुड़ाने वाला और नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त कराने वाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्म का अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रम में उसी कर्म का आचरण करते हुए विराजमान हैं । ये अपनी घोर तपस्या के द्वारा मेरा धाम छिनना चाहते हैं—इन्द्र ने ऐसी आशंका करके स्त्री, वसन्त आदि दल-बल के साथ कामदेव को उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिये भेजा। कामदेव को भगवान् की महिमा का ज्ञान न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायु के साथ बदरिकाश्रम में जाकर स्त्रियों के कटाक्ष बाणों से उन्हें घायल करने की चेष्टा करने लगा ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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