महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 42 श्लोक 43-50
द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: कर्ण पर्व
हलदण्ड के समान दाँतोंवाले सौ हाथी और सैंकड़ों दास-दासियों के देने पर भी उस श्रंष्ठ ब्राह्मण ने मुझ पर कृपा नहीं की। श्वेत बछड़े वाली चैदह हजार काली गौएँ मैं उसे देने के लिये ले आया तो भी उस श्रेष्ठ ब्राह्म से अनुग्रह न पा सका।।मैं सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न समृद्धशाली घर और जो कुछ भी धन मेरे पास था, वह सब उस ब्राह्मण को सत्कार पूर्वक देने लगा;परंतु उसने कुछ भी लेने की इच्छा नहीं की। उस समय मैं प्रयत्प पूर्वक अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगा। तब ब्राह्मण ने कहा-सूत ! मैंने जो कह दिया,वह वैसा ही होकर रहेगा। वह पलट नहीं सकता। असत्य भाषण प्रजा का नाश कर देता है,अतः मैं झूठ बोलने के पाप का भागी होऊँगा;इसीलिए धर्म की रक्षा के उद्देश्य से मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता। तुम (लोभ देकर)ब्राह्मण की उत्तम गति का विनाश न करो। तुमने पश्चाताप और दान द्वारा उस वत्सवध का प्रायश्चित कर लिया। जगत् में कोई भी मेरे कहै हुए वचन को मिथ्या नहीं कर सकता;इसलिये मेरा शाप तुझे प्राप्त हागा ही। मद्रराज ! यद्यपि तुमने मुझपर आरोप किये हैं,तथापि सुहृद होने के नाते मैंने तुमसे ये सारी बातें कह दी हैं। मैं जानता हूँ,तम अब भी निन्दा करने से बाज न आओगे,तो भी कहता हूँ कि चुप होकर बैठो और अब से जो कुछ कहूँ,उसे सुनो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्ण पर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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