छतीसवाँ अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: छतीसवाँ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
ब्राम्हण की प्रशंसा के विषय में इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद ।
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! इस विषयमें इन्द्र और शम्बरासुर के संवाद रूप में इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है, इसे सुनो। एक समय की बात है, देवराज इन्द्र अज्ञातरूप से रजोगुणसम्पन्न जटाधारी तपस्वी बनकर एक बेडौल रथ पर सवार हो शम्बरासुर के पास गये। वहॉं पहुँचकर उन्होंने उससे पूछा। इन्द्र बोले- शम्बरासुर ! किस बर्ताव से अपनी जाति वालों पर शासन करते हो? वे किस कारण तुम्हें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं? यह ठीक-ठीक बतलाओ। शम्बरासुर ने कहा- मैं ब्राम्हणों में कभी दोष नहीं देखता। उनके मत को ही अपना मत समझता हूँ और शास्त्रों की बात बताने वाले विप्रों का सदा सम्मान करता हूँ- उन्हें यथासाध्य सुख देनेकी चेष्टा करता हूँ। सुनकर उनके वचनों की अवहेलना नहीं करता। कभी उनका अपराध नहीं करता। उनकी पूजा करके कुशल पूछता हूँ और बुद्धिमान ब्राम्हणों के पाँव पकड़ता हूँ। ब्राम्हण भी अत्यन्त विश्वस्त होकर मेरे साथ बातचीत करते और मेरी कुशल पूछते हैं। ब्राम्हणों के असावधान रहने पर भी मैं सदा सावधान रहता हूँ। उनके सोते रहने पर भी मैं जागता रहता हूँ। मुझे शास्त्रीय मार्ग पर चलने वाला ब्राम्हण भक्त तथा अदोषदर्शी जानकर वे उपदेशक ब्राम्हण मुझे उसी प्रकार सदुपदेश के अमृतसे सींचते रहते हैं जैसे मधुमक्खयाँ मधु के छत्ते को। संतुष्ट होकर वे मुझसे जो कुछ कहते हैं उसे मैं अपनी बुद्धि के द्वारा ग्रहण करता हूँ। सदा ब्राम्हणों में अपनी निष्ठा बनाये रखता हूँ। और नित्यप्रति उनके अनुकुल विचार रखता हूँ। उनकी वाणी से जो उपदेश का मधुर रस प्रवाहित होता है उसका मैं आस्वादन करता रहता हूँ। इसीलिये नक्षत्रों पर चन्द्रमाकी भाँति मैं अपनी जाति वालों पर शासन करता हूँ। ब्राम्हण के मुख से शास्त्र का उपदेश सुनकर इस जीवनमें उसके अनुसार बर्ताव करना ही पृथ्वी पर सर्वोतम अमृत और सर्वोतम दृष्टि हैं। इस कारण को जानकर अर्थात ब्राम्हण के उपदेश के अनुसार चलना ही अमृत है- इस बात को भली - भॉंति समझकर पूर्वकाल में देवासुर संग्राम की स्थिति हुआ देख मेरे पिता मन-ही-मन प्रसन्न और विस्मित हुए थे।। महात्मा ब्राम्हणों की इस महिमा को देखकर उन्होंने चन्द्रमा से पूछा-‘निशाकर ! इन ब्राम्हणों को किस प्रकार सिध्दि प्राप्त हुई?’ चन्द्रमा ने कहा- दानवराज! सम्पूर्ण ब्राम्हण तपस्या से ही सिद्ध हुए हैं। इनका बल सदा इनकी वाणी में ही होता है। राजाओं का बल उनकी भुजाएँ हैं और ब्राम्हणों का बल उनकी वाणी। पहले गुरु के घर में ब्रहाचर्य का पालन करते हुए क्लेश-सहनपूर्वक निवास करके प्रणव सहित वेद का अध्ययन करना चाहिये। फिर अन्त में क्रोध त्यागकर शान्तभाव से सन्यास ग्रहण करना चाहिये। यदि सन्यासी हो तो सर्वत्र समान दृष्टि रखे। जो सम्पूर्ण वेदों को पिता के घर में रहकर पढ़ता है वह ज्ञानसम्पन्न और प्रशंनसनीय होनेपर भी विद्वानोंके द्वारा ग्रामीण (गँवार) ही समझा जाता है। (वास्तव में गुरु के घरमें क्लेश-सहनपूर्वक रहकर वेद पढ़नेवाला ही श्रेष्ठ है)। जैसे साँप बिल में रहने वाले छोटे जीवों को निगल जाता है, उसी प्रकार युद्ध न करने वाले क्षत्रिय और विद्या के लिये प्रवास न करनेवाले ब्राम्हण को यह पृथ्वी निगल जाती है। मन्दबुद्धि पुरुष के भीतर जो अभिमान होता है वह उसकी लक्ष्मी का नाश करता है। गर्भ धारण करने से कन्या दूषित हो जाती है और सदा घर में रहने से ब्राम्हण दूषित समझे जाते हैं। जो इहलोक और परलोक दोनों को सुधारना चाहते हों, उन्हें विद्वान, लौकिक बातोंके ज्ञाता, तपस्वी और शक्तिशाली ब्राम्हणों की सदा पूजा और वन्दना करनी चाहिये।। अदभुत दर्शनवाले चन्द्रमा से यह बात सुनकर मेरे पिताजी ने महान व्रतधारी ब्राहामणों का पूजन किया। वैसे ही मैं भी करता हूँ। भीष्मजी कहते हैं- भारत ! दानवराज शम्बर के मुख से यह वचन सुनकर इन्द्र ने ब्राम्हणों का पूजन किया, इससे उन्हें महेन्द्र पद की प्राप्ति हुई।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्मपर्व में ब्राम्हण की प्रशंसा के प्रसंग में इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद विषयक छतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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