श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-10
एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः (5)
पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि का वर्णन
राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरों! आप लोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान् के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगों की लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वश में नहीं हैं तथा जो प्रायः भगवान् का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगों की क्या गति होती है ?
अब आठवें योगीश्वर चमसजी ने कहा—राजन्! विराट् पुरुष के मुख से सत्वप्रधान ब्राम्हण, भुजाओं से सत्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघों से रज-तम-प्रधान वैश्य और चरणों से तमःप्रधान शूद्र की उत्पत्ति हुई है। उन्हीं की जाँघों से गृहस्थाश्रम, ह्रदय से ब्रम्हचर्य, वक्षःस्थल से वानप्रस्थ और मस्तक से संन्यास—ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमों के जन्मदाता स्वयं भगवान् ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिए इन वर्ण और आश्रम में रहने वाला जो मनुष्य भगवान् का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनि से भी च्युत हो जाता है; उसका अधःपतन हो जाता है । बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान् की कथा और उनके नामकीर्तन आदि से कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप-जैसे भगवद्भक्तों की दया के पात्र हैं। आप लोग उन्हें कथा-कीर्तन की सुविधा देकर उनका उद्धार करें । ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्य जन्म से, वेदाध्ययन से तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों से भगवान् के चरणों के निकट तक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदों का असली तात्पर्य न समझकर अर्थवाद में लगकर मोहित हो जाते हैं । उन्हें कर्म का रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होने पर भी वे अपने को पण्डित मानते हैं और अभिमान में अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातों में भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरी के मोह में पड़कर चटकीली-भड़कीली बातें कहा करते हैं । रजोगुण की अधिकता के कारण उनके संकल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओं की तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँप का, बनावट और घमंड से उन्हें प्रेम होता है। वे पापी लोग भगवान् के प्यारे भक्तों की हँसी उड़ाया करते हैं । वे मूर्ख बड़े-बूढ़ों की नहीं, स्त्रियों की उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थी के सम्बन्ध में ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँ का सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवास में ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधि का उल्लंघन करते और दक्षिणा तक नहीं देते। वे कर्म का रहस्य न जानने वाले मूर्ख केवल अपनी जीभ को सन्तुष्ट करने और पेट की भूख मिटाने—शरीर को पुष्ट करने के लिये बेचारे पशुओं की हत्या करते हैं । धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदि के घमंड से अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर का भी अपमान करते रहते हैं । राजन्! वेदों ने इस बात को बार-बार दुहराया है कि भगवान् आकाश के समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियों में स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणी को तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथों की बात आपस में कहते-सुनते रहते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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