श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 33-42
एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः (5)
वे लोग भगवान् स्तुति इस प्रकार करते हैं—‘प्रभो! आप शरणागत रक्षक हैं। आपके चरणारविन्द सदा-सर्वदा ध्यान करने योग्य, माया-मोह के कारण होने वाले सांसारिक पराजयों का अन्त कर देने वाले तथा भक्तों की समस्त अभीष्ट वस्तुओं का दान करने वाले कामधेनुस्वरुप हैं। वे तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले स्वयं परम तीर्थस्वरुप हैं; शिव, ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े देवता उन्हें नमस्कार करते हैं और चाहे जो कोई उनकी शरण में आ जाय उसे स्वीकार कर लेते हैं। सेवकों की समस्त आर्ति और विपत्ति के नाशक तथा संसार-सागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। महापुरुष! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ । भगवन्! आपके चरणकमलों की महिमा कौन कहे ? रामावतार में अपने पिता दशरथजी के वचनों में देवताओं के लिये भी वांछनीय और दुस्त्य्ज राज्य-लक्ष्मी को छोड़कर आपके चरण-कमल वन-वन घूमते फिरे! सचमुच आप धर्मनिष्ठता की सीमा हैं। और महापुरुष! अपनी प्रयसी सीता के चाहने पर जान-बूझकर आपके चरणकमल माया मृग के पीछे दौड़ते रहे। सचमुच आप प्रेम की सीमा हैं। प्रभो! मैं आपके उन्हीं चरणारविन्दों की वन्दना करता हूँ’ ।
राजन्! इस प्रकार विभिन्न युगों के लोग अपने-अपने युग के अनुरूप नाम-रूपों द्वारा विभिन्न प्रकार से भगवान् की आराधना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीहरि ही हैं । कलियुग में केवल संकीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिए इस युग का गुण जानने वाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं । देहाभिमानी जीव संसार चक्र में अनादि काल से भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान् की लीला, गुण और नाम के कीर्तन से बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसार में भटकना मिट जाता है और परम शान्ति का अनुभव होता है । राजन्! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुग में हो; क्योंकि कलियुग में कहीं-कहीं भगवान् नारायण के शरणागत उन्हीं के आश्रय में रहने वाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे। महाराज विदेह! कलियुग में द्रविड़ देश में अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नाम की नदियाँ बहती हैं। राजन्! जो मनुष्य इन नदियों का जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् वासुदेव के भक्त हो जाते हैं ।
राजन्! जो मनुष्य ‘यह करना बाकी है, वह करना आवश्यक है’इत्यादि कर्म-वासनाओं का अथवा भेद-बुद्धि का परित्याग करके सर्वात्मभाव से शरणागतवत्सल, प्रेम के वरदानी भगवान् मुकुन्द की शरण में आ गया है, वह देवताओं, ऋषियों, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियों के ऋण से उऋण हो जाता है; वह किसी के अधीन, किसी का सेवक, किसी के बन्धन में नहीं रहता ।
जो प्रेमी भक्त अपने प्रियतम भगवान् के चरण-कमलों का अनन्यभाव से—दूसरी भावनाओं, आस्थाओं, वृत्तियों और प्रवृत्तियों को छोड़कर—भजन करता है, उससे, पहली बात तो यह है कि पापकर्म होते ही नहीं; परन्तु यदि कभी किसी प्रकार हो भी जायँ तो परमपुरुष भगवान् श्रीहरि उसके ह्रदय में बैठकर वह सब धो-बहा देते और उसके ह्रदय को शुद्ध कर देते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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