श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 33-35
दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)
अजन्मा प्रभो! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छ्रिखल एवं अत्यन्त चंचल मन-तुरंग को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करने वाले व्यापारियों की होती है (तात्पर्य यह कि जो मन को वश में करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधार—गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है) ।
भगवन्! आप अखण्ड आनन्दस्वरुप और शरणागतों के आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है ? जो लोग इस सत्य सिद्धान्त को न जानकार स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से होने वाले सुखों में ही रम रहे हैं, उन्हें संसार में भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जाने वाली हैं। और तो क्या, वे स्वरुप से ही सार हीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं । भगवन्! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम पवित्र और सबको पवित्र करने वाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके ह्रदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिये नष्ट कर देने वाला है। भगवन्! आप नित्य-आनन्दस्वरुप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं—आपमें मन लगा देते हैं—वे उन देह-गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीव के विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणों का नाश करने वाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-