श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 10-16

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एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद


मननशील मुमुक्षुजन मोक्ष-प्राप्ति के लिये अपने प्रेम से पिघले हुए ह्रदय के द्वारा जिन्हें लिये-लिये फिरते हैं, पांचरात्र विधि से उपासना करने वाले भक्तजन समान ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये वासुदेव, संकर्षण, प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध—इस चतुर्व्यूह के रूप में जिनका पूजन करते हैं और जितेन्द्रिय धीर पुरुष स्वर्ग लोक का अतिक्रमण करके भगवद्धाम की प्राप्ति के लिये तीनों समय जिनकी पूजा किया करते हैं, याज्ञिक लोग तीनों वेदों के द्वारा बतलायी हुई विधि से अपने संयत हाथों में हविष्य लेकर यज्ञकुण्ड में आहुति देते और उन्हीं का चिन्तन करते हैं। आपकी आत्म-स्वरूपिणी माया के जिज्ञासु योगीजन ह्रदय के अन्तर्देश में दहरविद्या आदि के द्वारा आपके चरणकमलों का ही ध्यान करते हैं और आपके बड़े-बड़े प्रेमी भक्तजन उन्हीं को अपना परम इष्ट आराध्यदेव मानते हैं। प्रभो! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं—विषय-वासनाओं को भस्म करने के लिये अग्निस्वरुप हों। वे अग्नि के समान हमारे पाप-तापों को भस्म कर दें । प्रभो! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल पर मुरझायी हुई बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पर्द्धा रखती हैं। फिर भी आप उनकी परवा न कर भक्तों के द्वारा इस बासी माला से की हुई पूजा भी प्रेम से स्वीकार करते हैं। ऐसे भक्तवत्सल प्रभु के चरणकमल सर्वदा हमारी विषयवासनाओं को जलाने-वाले अग्निस्वरुप हों । अनन्त! वामनावतार में दैत्यराज बलि की दी हुई पृथ्वी को नापने के लिये जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोक में पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजय ध्वज हो। ब्रम्हाजी के पखारने के बाद उससे गिरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय। आपका यह चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषों के लिये आपके धाम वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति का और दुष्टों के लिये अधो-गति का कारण है। भगवन्! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप धो-बहा दे । ब्रम्हा आदि जितने भी शरीरधारी हैं, वे सत्व, रज, तम—इन तीनों गुणों के परस्पर-विरोधी त्रिविध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हैं। वे सुख-दुःख के थपेड़ों से बाहर नहीं हैं और ठीक वैसे ही आपके वश में हैं, जैसे नाते हुए बैल अपने स्वामी के वश में होते हैं। आप उनके लिये भी कालस्वरुप हैं। उनके जीवन का आदि, मध्य और अन्त आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप प्रकृति और पुरुष से भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपके चरणकमल हम-लोगों का कल्याण करें । प्रभो! आप इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं; क्योंकि शास्त्रों ने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महतत्त्व के भी नियन्त्रण करने वाले काल हैं। शीत, गीष्म और वर्षाकाल रूप तीन नाभियों वाले सवत्सर के रूप में सबको क्षय की ओर ले जाने वाले काल आप ही हैं। आपकी गति अबाध और गम्भीर है। आप स्वयं पुरुषोत्तम हैं । यह पुरुष आपसे शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर माया के साथ संयुक्त होकर विश्व के महतत्व रूप गर्भ का स्थापन करता है। इसके बाद वह महतत्व त्रिगुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रम्हाण्ड की रचना करता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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