श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 30-43
एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)
यदि मैं घमंडी और उच्छ्रंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादा का उल्लंघन करके सारे लोकों का संहार कर डालेंगे । निष्पाप ब्रम्हाजी! अब ब्राम्हणों के शाप से इस वंश का नाश प्रारम्भ हो चुका है। इसका अन्त हो जाने पर मैं आपके धाम में होकर जाऊँगा ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अखिललोकाधिपति भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब ब्रम्हाजी ने उन्हें प्रणाम किया और देवताओं के साथ वे अपने धाम को चले गये । उनके जाते ही द्वारकापुरी में बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंश के बड़े-बूढ़े भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये। भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे यह बात कही ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—गुरुजनों! आजकल द्वारका में जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आप लोग जानते ही हैं कि ब्राम्हणों ने हमारे वंश को ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि हमलोग अपने प्राणों की रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं है। हम लोग आज परम पवित्र प्रभासक्षेत्र के लिए निकल पड़ें । प्रभासक्षेत्र की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापति के शाप से चन्द्रमा को राजयक्ष्मा रोग ने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभासक्षेत्र में जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोग से छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओं की अभिवृद्धि भी पाप्त हो गयी । हम लोग भी प्रभासक्षेत्र चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरों का तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुण वाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राम्हणों को भोजन करायेंगे। वहाँ हम लोग उन सत्पात्र ब्राम्हणों को पूरी श्रद्धा से बड़ी-बड़ी दान-दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े संकटों को वैसे ही पार कर जायँगे, जैसे कोई जहाज के द्वारा समुद्र पार कर जाय ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुलनन्दन! जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियों ने एक मत से प्रभास जाने का निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने-जोतने लगे । परीक्षित्! उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियों को यात्रा की तैयारी करते देखा, भगवान् की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे तब वे जगत् के एकमात्र अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के पास एकान्त में गये, उनके चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे ।
उद्धवजी ने कहा—योगेश्वर! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओं के श्रवण-कीर्तन से जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेशवर हैं। आप चाहते तो ब्राम्हणों के शाप को मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेटकर अवश्य ही इस लोक परित्याग कर देंगे । परन्तु घुँघराली अलकों वाले श्यामसुन्दर! मैं आधे क्षण के लिये भी आपके चरणकमलों के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी! आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिये ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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