श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 13-23
एकादश स्कन्ध: सप्तमोऽध्यायः (7)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान् के परम प्रेमी उद्धवजी ने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति इच्छा से यह प्रश्न किया ।
उद्धवजी ने कहा—भगवन्! आप ही समस्त योगियों की गुप्त पूँजी योगों के कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगों के आधार, उनके कारण और योगस्वरुप भी हैं। आपने मेरे परम-कल्याण के लिये उस सन्यास रूप त्याग का उपदेश किया है । परन्तु अनन्त! जो लोग विषयों के चिन्तन और सेवन में घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओं का त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरुप! उसमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकार का त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है । प्रभो! मैं भी ऐसा ही हूँ; मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ यह मेरा है’ इस भाव से मैं आपकी माया के खेल, देह और देह के सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदि में डूब रहा हूँ। अतः भगवन्! आपने जिस संन्यास का उपदेश किया है, उसका तत्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ । मेरे प्रभो! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों से अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरे के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयं प्रकाश आत्मस्वरुप हैं। प्रभो! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्व् का उपदेश करने वाला आपके अतिरिक्त देवताओं में भी कोई नहीं है। ब्रम्हा आदि जितने बड़े-बड़े देवता हैं, वे सब शरेराभिमानी होने के कारण आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि माया के वश में हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियों से अनुभव किये जाने वाले बाह्य विषयों को सत्य मानते हैं। इसलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये । भगवन्! इसी से चारों ओर से दुःखों की दावाग्नि से जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप निर्दोष देश-काल से अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठलोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण हैं। (अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये) ।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! संसार में जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है ? इसमें क्या हो रहा है ?’ इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण हैं, वे चित्त में भरी हुई अशुभ वासनाओं से अपने-आप को स्वयं अपनी विवेक-शक्ति से ही प्रायः बचा लेते हैं । समस्त प्राणियों का विशेषकर मनुष्य का आत्मा अपने हित और अहित का उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा अपने हित-अहित का निर्णय करने में पूर्णतः समर्थ है । सांख्य-योगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदि के आश्रयभूत मुझ आत्मतत्व् को पूर्णतः प्रकटरूप से साक्षात्कार कर लेते हैं ।
मैंने एक पैर वाले, दो पैर वाले, तीन पैर वाले, चार पैर वाले, चार से अधिक पैर वाले और बिना पैर के—इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है । इस मनुष्य-शरीर में एकाग्रचित्त तीक्षबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जाने वाले हेतुओं से जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमान से अग्राह्य अर्थात् अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक ईश्वर क साक्षात् अनुभव करते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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