त्रयोविंश अध्याय: उद्योग पर्व (उलूकदूतागमन पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: षटषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
- अर्जुन के द्वारा दुर्गादेवी की स्तुति, वरप्राप्ति और अर्जुनकृत दुर्गास्तवन के पाठ की महिमा
संजय कहते हैं- दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित के लिये इस प्रकार कहा। श्रीभगवान् बोले- महाबाहो। तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो। पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गा देवी की स्तुति करो। संजय कहते हैं- परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतरकर दुर्गादेवी की स्तुति करने लगे। अर्जुन बोले- मन्दराचल पर निवास करने वाली सिद्धों की सेनानेत्री आयें। तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। तुम्हीं कुमारी, काली, कापाली, कपिला, कृष्णपिंग्ला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो, तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। दुष्टों पर प्रचण्ड कोप करने के कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तों को संकट से तारने के कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। महाभागे। तुम्हीं (सौम्य और सुन्दर रूपवाली) पूजनीया कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जया के नाम से विख्यात हो। मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है। नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ाते हैं। तुम भयंकर त्रिशूल, खडंग और खेटक आदि आयुधों को धारण करती हो। नन्दगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्ण की तुम छोटी बहिन हो, परंतु गुण और प्रभाव में सर्वश्रेष्ठ हो। महिषासुर का रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थीं। तुम कुशिकगोत्र में अवतार लेने के कारण कौशिकी नाम से भी प्रसिद्ध हो। तुम पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओं को देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्रवाक के समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है। मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ। उमा, शाकम्भरी, श्वेता, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी और सुधूभ्राक्षी आदि नाम धारण करने वाली देवि। तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है। तुम वेदों की श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है, वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्नि की शक्ति हो, जम्बू, कटक और चैत्यवृक्षों में तुम्हारा नित्य निवास है। तुम समस्त विद्याओं में ब्रह्माविद्या और देहधारियों की महानिद्रा हो। भगवति। तुम कार्तिकेय की माता हो, दुर्गम स्थानों में वास करने वाली दुर्गा हो। सावित्रि। स्वाहा, स्वाध, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता तथा वेदान्त- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं। महादेवी। मैंने विशुद्ध हृदय से तुम्हारा स्तवन किया है। तुम्हारी कृपा से इस रणागङण में मेरी सदा ही जय हो। माँ। तुम घोर जंगल में, भयपूर्ण दुर्गम स्थानों में, भक्तों के घरों में तथा पाताल में भी नित्य निवास करती हो। युद्ध में दानवों को हराती हो। तुम्हीं जम्मनी, मोहिनी, माया, हीं, श्रीं, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो। तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य-चन्द्रमा को बढ़ाने वाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानों की विभूति हो। युद्ध भूमि में सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं। संजय कहते हैं-राजन्। अर्जुन के इस भक्तिभाव का अनुभव करके मनुष्योंपर वात्सल्य भाव रखने वाली माता दुर्गा अन्तरिक्ष में भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयीं और इस प्रकार बोलीं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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