श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 12-23
एकादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे-शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ जीवन भी गँवा बैठेगा ।
राजन्! मैंने हाथी से यह सीखा कि सन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अंग-संग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह बँध जायगा । विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह मूर्तिमयी मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायगा ।
मैंने मधु निकालने वाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन संचय तो करते रहते हैं, किन्तु वह संचित धन न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालने वाला मधुमक्खियों द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है वैसे ही उनके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ।
तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से संचित किये पदार्थों को, जिनसे वे सुख भोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रम्हचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ।
मैंने हरिन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हरिन से ग्रहण से जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है । तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्य श्रृंग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश मने हो गये थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे ।
अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथकर व्याकुल कर देने वाली अपनी जिभ्या के वश में हो जाता है और मारा जाता है । विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है । मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं ।
नृपनन्दन! प्राचीन काल की बात है, विदेहनगरी मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो । वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमण स्थान में लाने के लिये खूब बन-ठनकर—उत्तम वस्त्राभूषणों सज कर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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