श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 90 श्लोक 13-20
दशम स्कन्ध: ननवतितमोऽध्यायः(90) (उत्तरार्ध)
परीक्षित्! भगवान् इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिंगन आदि से रानियों की चित्तवृत्ति उन्हीं की ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बात का स्मरण ही न होता । परीक्षित्! रानियों के जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दर के चिन्तन में इतनी मग्न हो जातीं कि कई देर तक चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान् श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरह का अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ ।
रानियाँ कहतीं—अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसार के सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान् अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद नहीं आती ? तू इस तरह रात-रात भर जगकर विलाप क्यों कर रही है ? सखी! कहीं कमलनयन भगवान् के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवन से तेरा ह्रदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है ?
अरी चकवी! तूने रात के समय अपने नेत्रों क्यों बंद कर लिये हैं ? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है ? हाय-हाय! तू बड़ी दुःखिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे ह्रदय में भी हमारे ही समान भगवान् की दासी होने का भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई पुष्पों की माला अपनी चोटियों में धारण करना चाहती है ?
अहो समुद्र! तू निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या ? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागने रहने का रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने तुम्हरे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसी से तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधि के शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है ?
चन्द्रदेव! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसी से तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणों से अँधेरा भी नहीं हटा सकते! क्या हमारी भाँति हमारे प्यारे श्यामसुन्दर की मीठी-मीठी रहस्य की बातें भूल जाने के कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है ? क्या उसी की चिन्ता से तुम मौन हो रहे हो ?
मलयानिल! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे ह्रदय में काम का संचार कर रहा है ? अरे तू नहीं जानता क्या ? भगवान् की तिरछी चितवन से हमारा ह्रदय तो पहले ही घायल हो गया है ।
श्रीमन् मेघ! तुम्हारे शरीर का सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान् के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाश में बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो! देखो-देखो! तुम्हारा ह्रदय चिन्ता से भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसू की धारा बहा रहे हो। श्यामघन! सचमुच घनश्याम से नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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