श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 9-13
एकादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)
जब आग लकड़ी में प्रज्वलित होती है, तब लकड़ी के उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है तब वह देह के जड़ता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणों से सर्वदा रहित होने पर भी उनसे युक्त जान पड़ता है ।
ईश्वर के द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है। जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के जन्म-मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीव को जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यास के कारण प्राप्त होता है। आत्मा के स्वरुप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है । प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्यु रूप संसार कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिए अपने वास्तविक स्वरुप को, आत्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरुप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत् से अतीत, द्वैत की गन्ध से रहित एवं अपने-आप में ही स्थित हैं। उसका कोई और आधार नहीं है। उसे जानकार धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदि में सत्यत्व बुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये । (यज्ञ में जब अरणि मन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीच में मन्थन काष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्या रूप अग्नि की उत्पत्ति के लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपर की अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थन काष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देने वाली है। इस यज्ञ में बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरु के द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणों से बनी हुई विषयों की माया को भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके हो जाने पर जब आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरुप में शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहने पर आग बुझ जाती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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