श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 9-20
एकादश स्कन्ध: एकादशोमोऽध्यायः (11)
व्यवहारादि में इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुण को ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिए जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरुप को समझ लिया है वह उन विषयों के ग्रहण-त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता । यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है ।
प्यारे उद्धव! पूर्वोक्त पद्धति से विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणों का ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं—ऐसा जानकार विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलों से नहीं बँधते। वे प्रकृति में रहकर भी वैसे ही असंग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल की आर्द्रता आदि से सूर्य और गन्ध आदि से वायु। उनकी विमान बुद्धि की तलवार असंग-भावना की सान से और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे, संशय-सन्देहों को काट-कूदकर फ़ेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्न से जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धि के भ्रम से मुक्त जाते हैं । जिनके प्राण इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएँ बिना संकल्प के होती हैं, वे देह में स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त हैं ।
उन तत्वज्ञ मुक्त पुरुषों के शरीर को चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोग से पूजा करने लगे—वे न तो किसी के सताने से दुःखी होते हैं और न पूजा करने से सुखी । जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेददृष्टि से ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करने वालों की स्तुति करते हैं और न बुरे काम करने वाले की निन्दा; न तो किसी की अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसी को झिड़कते ही हैं । जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहार में अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्द में ही मग्न रहते हैं और जड़ के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ।
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो पारगामी विद्वान हो, परन्तु परब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध की गाय का पालने वाला । दूध न देने वाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र के प्राप्त होने पर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओं कि रखवाली करने वाला दुःख-पर-दुःख ही भोगता रहता है । इसलिये उद्धव! जिस वाणी में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों में भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारों का जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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