श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-13
एकादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः (12)
सत्संग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद तीर्थ और यम-नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं । निष्पाप उद्धवजी! यह एक युग की नहीं, सभी युगों की एक-सी बात है। सत्संग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृति के बहुत-से जीवों ने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्संग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं । उन लोगों ने ने अतो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्र चान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्संग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गये । गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रज के हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्य एक सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भाव के द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये । उद्धव! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्संग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ । उद्धव! जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का ह्रदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रँगा हुआ था। मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुख कारक नहीं जान पड़ती थी । तुम जानते हो कि मैं ही उनका एक मात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत-सी स्त्रियाँ—वे रास की रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये के-एक कल्प के समान हो गयीं । जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधि में स्थित होकर तथा गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलाने वाले पतिपुत्रादि की सुध-बुध नहीं रह गयी थी । उद्धव! उन गोपियों में बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरुप को नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान् न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जार भाव से मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओं ने केवल संग के प्रभाव से ही मुझ परब्रम्ह परमात्मा को प्राप्त कर लिया ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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