महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 97 श्लोक 1-24
सप्तनवतितम (97) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का युद्ध तथा सात्यकि द्वारा धृष्टद्युम्न की रक्षा
संजय कहते हैं-राजन्। उस रोमाच्चकारी संग्राम के होते समय वहां तीन भागों में बंटे हुए कौरवों पर पाण्डव सैनिकों ने धावा किया। भीमसेन महाबाहु जलसंध पर आक्रमण किया और सेना सहित युधिष्ठिर ने युद्ध स्थल में कृत वर्मा पर धावा बोल दिया। महाराज्। जैसे प्रकाशमान सूर्य सहस्त्रों किरणों का प्रसार करते है, उसी प्रकार धृष्टद्युम्न ने बाण समूहों की वर्षा करते हुए रणक्षेत्र में द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। तदनन्तर परस्पर क्रोध में भरे और उतावले हुए कौरव पाण्डव पक्ष के सम्पूर्ण धनुर्धरों का आप में युद्ध होन लगा। इस प्रकार जब महाभंयकर जनसंहार होने लगा और सारे सैनिक निर्भय-से होकर द्वन्द्व –युद्ध करने लगे, उस समय बलवान् द्रोणाचार्य ने शक्तिशाली पाच्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्र के साथ युद्ध करते हुए जो बाण समूहों की वर्षा आरम्भ की, वह अभ्दुत सी प्रतीत होने लगी। द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न ने मनुष्यों के बहुत-से मस्तक काट गिराये, जो चारों ओर नष्ट होकर पड़े हुए कमलवानों के समान जान पड़ते थे। चारों ओर सेनाओं में वीरों के बहुत से वस्त्र, आभुषण, अस्त्र-शस्त्र, ध्वज,कवच तथा आयुध छिन्न-भिन्न होकर बिखरे पड़े थे। सुवर्ण का कवच बांधे तथा खून से लथपथ हुए सैनिक परस्पर सटे हुए बिजलियों सहित मेघ-समूहों के समान दिखायी देते थे। बहुत से दूसरे महारथी चार हाथ के धनुष खींचते हुए अपने पंखयुक्त बाणों द्वारा हाथी, घोड़े और पैदल मनुष्यों को मार गिराते थे। उन महामनस्वी वीरों संग्राम में योद्धाओं के खगड, ढाल, धनुष, मस्तक और कवच कटकर इधर-उधर बिखरे जाते थे। महाराज्। उस महाभयानक युद्ध में चारों ओर असंख्य कबन्ध खड़े दिखायी देते थे। आर्य वहां बहुत-से गीध, कक्ड, बगले, बाज, कौए, सियार तथा अन्य मांसभक्षी प्राणी दृष्टिगोचर होते थे। नरेश्रवर। वे मांस खाते, रक्त पीते और केशों तथा मज्जाको बारंबार नोचते थे। मनुष्यों, घोड़ों तथा हाथियों के समूहों के समूहों के सम्पूर्ण शरीरों और अवयवों एवं मस्तकों को इधर-उधर खींचते थे। अस्त्र विद्या के ज्ञाता और युद्ध में शोभा पानेवाले वीर रणयज्ञ की दीक्षा लेकर संग्राम में विजय चाहते हुए उस समय बड़े जोर से युद्ध करने लगे। समस्त सैनिक उस रणक्षैत्र में तलवार के बहुत से पैंतरे दिखाते हुए विचर रहे थे। युद्ध की रंगभूमि में आये हुए मनुष्य परस्पर कुपित हो एक दूसरे पर ऋष्टि, शक्ति, प्राप्त,शूल, तोमर, पटिश, गदा, परिघ, अन्यान्य आयुध तथा भुजाओं द्वारा चोट पहुंचाते थे। रथी रथियों के, घुड़सवाररों के , मतवाले हाथी श्रेष्ठ गज राजों के और पैदल योद्धा पैदलों के साथ युद्ध कर रहे थे। रंगस्थल के समान उस रणक्षेत्र में अन्य बहुत से मत्त और उन्मत हाथी एक दूसरे को देखकर चिग्घाड़ते और परस्पर आघात-प्रत्याघात करते थे। राजन्। जिस समय वह मर्यादाशून्य युद्ध हो रहा था, उसी समय धृष्टाद्युम् ने अपने रथ के घोड़ों द्रोणाचार्य के घोड़ों से मिला दिया। धृष्टद्युमन के घोड़ों का रंग कबूतर के समान था और द्रोणाचार्य के घोड़े लाल थे। उस युद्ध के मैदान में परस्पर मिले हुए वे वायु के समान वेगशाली अश्रव बड़ी शोभा पा रहे थे। राजन् कबूतर के समान वर्णवाले घोड़े लाल रंग के घोड़ों से मिलकर बिजलियों सहित मेघों के समान सशोभित हो रहे थे। भारत् वीर धृष्टद्युम्र ने द्रोणाचार्य अत्यन्त निकट आया हुआ देख धनुष छोड़कर हाथ में ढाल और तलवार लेली।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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