अष्टनवतितम (98) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
महाभारत: द्रोण पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 19-40 का हिन्दी अनुवाद
उन दोनों युद्धकुशल वीरों के धनुषों की प्रत्यच्चा की टंकारध्वनि ऐसी सुनायी देती थी, मानो पर्वतों के शिखरों पर निरन्तर वज्र से आघात किया जा रहा हो। राजन् । उन दोनों के वे रथ, वे घोड़े और वे सारथि सुवर्णमय पंखवाले बाणों से क्षत-विक्षत होकर उस समय विचित्ररुप से सुशोभित हो रहे थे। प्रजानाथ। केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान निर्मल और सीधे जानेवाले नाराचों का प्रहार वहां बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। दोनों के छत्र कटकर गिर गये, ध्वज धराशायी हो गये और दोनों ही विजय की अभिलाषा रखते हुए खून से लथपथ हो रहे थे। सारे अगड़ों से रक्त की धारा बहने के कारण वे दोनों वीर मदवर्षी गजराजों के समान जान पड़ते थे। वे एक दूसरे को प्राणन्तकारी बाणों से बेघ रहे थे। महाराज। उस समय गरज ने, ललकारने और सिंहनाद के शब्द तथा शखड़ों और दुन्दुभियों के साथ घोष बंद हो गये थे। कोई बातचीत तक नहीं करता था। सारी सेनाएं मौन थीं, योद्धा युद्ध से विरत हो गये थे, सब लोग कौतुहलवश उन दोनों के द्वैरथ युद्ध का दृश्य देखने लगे। रथी, महावत, घुड़सवार और पैदल सभी उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों को घेरकर उन्हें एकटक नेत्रों से निहारने लगे। हाथियों की सेनाएं चुपचाप खड़ी थी, घुड़सवार सैनिकों की भी दशा थी तथा रथ सेनाएं भी व्यूह बनाकर वहां स्थिर भाव से खड़ी थीं। भारत। मोती और मूंगों से चित्रित तथा मणियों और सुवणों से विभूषित, ध्वज, विचित्र आभुषण, सुवर्णमय कवच, वैजयन्ती, पताका, हाथियों के झुल और कम्बल, चमचमाते हुए तीखे शस्त्र, घोडों की पीठ पर बिछाये वस्त्र , हाथियों के कुम्भ स्थल में और मस्तकों पर सुशोभित होने वाले सोने-चांदी की मालाएं तथा दन्तवेष्टन- इन सब वस्तुओं के कारण उभय पक्ष की सेनाएं वर्षाकाल में बगलों की पांति, खद्योत, ऐरावत और बिजलियों से युक्त मेघ समूहों के समान दृष्टि गोचर हो रही थीं । राजन् हमारी और युधिष्ठिर की सेना के सैनिक वहां खड़े होकर महामना द्रोण और सात्यकि का वह युद्ध देख रहे थे। ब्रहा और चन्द्रमा आदि सब देवता विमानों पर बैठकर वहां युद्ध देखने के लिये आये थे। उनके साथ ही सिद्धों और चारणों के समूह, विद्याधर और बड़े-बड़े नाग गण भी थे। वे सब लोग उन दोनों पुरुषसिंहों के विचित्र गमन प्रत्यागमन, आक्षेप तथा नाना प्रकार के अस्त्र निवारक व्यापारों से आश्रर्यचकित हो रहे थे। महावीर द्रोणाचार्य और सात्यकि अस्त्र चलाने में अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को बेध रहे थे। इसी बीच में सात्यकि ने महातेजस्वी द्रोणाचार्य धनुष और बाणों को पंखयुक्त सुदृढ़ बाणों द्वारा युद्ध स्थल में शीघ्र ही काट डाला। तब भ् तब द्रोणाचार्य पुन: बड़ी उतावली के साथ दूसरा धनुष हाथ में लेकर खड़े हो गये; परन्तु ज्यों ही वे धनुष पर डोरी चढ़ाते, त्यों ही सात्यकि अपने तीखे बाणों द्वारा उसे काट देते थे। इस प्रकार सुद्यढ़ धनुष धारण करने वाले सात्यकि ने आचार्य के एक सौ धनुष काट डाले; परंतु कब वे संधान करते हैं और सात्यकि कब उस धनुष को काट देते है, उन दोनों के इस कार्य में किसी को कोई अन्तर नहीं दिखायी दिया। राजेन्द्र । तदनन्तर रणक्षैत्र में सात्यकि के उस अमानुषिक पराक्रम को देखकर द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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