श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 14-24

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:१५, १० जुलाई २०१५ का अवतरण ('== एकादश स्कन्ध :चतुर्दशोऽध्यायः (14) == <div style="text-align:center; direction: l...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकादश स्कन्ध :चतुर्दशोऽध्यायः (14)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रम्हा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट्-बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है। वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता । उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रम्हा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है । जिसे किसी की अपेक्षा नहीं, जो जगत् के चिन्तन से सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन—चिन्तन में तल्लीन रहता है और रांग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणों की धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ । जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित हैं—यहाँ तक कि शरीर आदि में भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेम के रंग में रँग गया है, जो संसार की वासनाओं से शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता—उदारता के कारण स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखते हैं, किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि का स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरुप का अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त होता है । उद्धवजी! मेरा जो भक्त अभी जितेंद्रिये नहीं हो सकता है और संसार के विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं—अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षण में बढ़ने वाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयों से पराजित नहीं होता । उद्धव! जिसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है । उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति । मैं संतों का प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ। मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगों को भी पवित्र—जाति दोष से मुक्त कर देती है, जो जन्म से ही चाण्डाल हैं । इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वन्चित हैं, उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त, धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करने में असमर्थ हैं । जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्द के आँसू आँखों से छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बहिरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है । जिसकी वाणी प्रेम से गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षण के लिये भी रोने का ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिल-खिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचें स्वर से गाने लगता है, तो कहीं नाचने नागता है, भैया उद्धव! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-