श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 38-46
एकादश स्कन्ध :चतुर्दशोऽध्यायः (14)
मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोम से शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनों तक लंबी मनोहर चार-भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकत-मणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुख पर मन्द-मन्द मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उसमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्षःस्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गले में वनमाला लटक रही है। चरणों में नूपुर शोभा दे रही हैं, गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर एवं ह्रदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यार भरी चितवन कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिये और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिये ।
बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे । जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे । जब चित्त मुखारविन्द में ठहर जाय, तब उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदनन्तर आकाश का चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरुप में आरूढ़ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे । जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है । जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिये होने वाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-