महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 101 श्लोक 1-17
एकाधिकशततम (101) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
श्री कृष्ण और अर्जुन को आगे बढ़ा देख कौरव सैनिकों की निराशा तथा दुर्योधन का युद्ध के लिये आना
संजय कहते हैं- नरेश्वर । भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन को सब को लांघकर आगे बढ़ा हुआ देख भय के कारण आपके सैनिकों की मज्जा खिसकने लगी। फिर वे लज्जित हुए समस्त महामनस्वी सैनिक धैर्य और साहस से प्रेरित हो युद्ध के लिये स्थिरचित्त होकर रोषपूर्वक अर्जुन की ओर जाने लगे। जो लोग युद्ध में रोष और अमर्ष से भरकर पाण्डुनन्दन अर्जुन के सामने गये, वे समुद्र तक गयी हुई नदियों के समान आज तक नहीं लौटे। जैसे नास्तिक पुरुष वेदों से (उनकी बतायी हुई विधियों से) दूर रहते हैं, उसी प्रकार जो अधम मनुष्य थे, वे ही अर्जुन के सामने जाकर भी लौट आये (वे नरक में पड़कर अपने पाप का फल भोग रहे होंगे। रथियों की सेना को लांघकर उनके घेरे से मुक्त हुए पुरुष श्रेष्ठ श्री कृष्ण और अर्जुन राहु के मुंह छूटे हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान दिखायी दिये। जैसे दो मत्स्य किसी महाजाली को फाड़कर निकल जाने पर क्लेशशून्य हो जाते हैं, उसी प्रकार उस सेना समूह को विदीर्ण करके श्री कृष्ण और अर्जुन क्लेश रहित दिखायी देते थे ।।6।। शस्त्रों से भरे हुए आचार्य द्रोण के दुर्भेद्य सैन्य-व्यूह से छुटकारा पाकर महात्मा श्री कृष्ण और अर्जुन उदित हुए प्रलयकाल के सूर्य के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे। शत्रुओं को संतप्त करनेवाले वे दोनों महात्मा श्री कृष्ण और अर्जुन अग्रि के समान दाहक स्पर्शवाले मगर के मुख से छुटे हुए दो मत्स्यों के समान अस्त्र –शस्त्रों की बाधाओं तथा संकटों से मुक्त दिखायी दे रहे थे। जैसे दो मगर समुद्र को क्षुब्ध कर देते हैं, उसी प्रकार उन दोनों ने सारी सेना को व्याकुल कर दिया । आपके सैनिकों तथा पुत्रों ने उस समय द्रोणाचार्य के सैन्यव्यूह में घुसे हुए श्री कृष्ण और अर्जुन के सम्बन्ध में यह विचार किया था कि ये दोनों द्रोण को नहीं लांघ सकेंगे। परंतु महाराज । जब वे दोनों महातेजस्वी वीर द्रोणाचार्य के सैन्यव्यूह को लांघ गये, तब उन्हें देखकर आप के पुत्रों को सिन्धुराज के जीवित रहने की आशा नहीं रह गयी। राजन् । प्रभो । सब लोगों को यह सोचकर कि श्री कृष्ण और अर्जुन द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा के हाथ से नहीं छूट सकेंगे, सिन्धुराज के जीवन की आशा प्रबल हो उठी थी। महाराज् शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों वीर श्री कृष्ण और अर्जुन लोगों की उस आशा को विफल करके द्रोणाचार्य तथा कृतवर्मा की दुस्तर सेना को लांघ गये। दो प्रज्वलित अग्रियों के समान सारी सेना को लांघकर खड़े हुए उन दोनों वीरों को सकुशल देख आप के सैनिकों ने निराश होकर सिन्धुराज के जीवन की आशा त्याग दी। दूसरों का भय बढ़ाने और स्वयं निर्भय रहने वाले श्री कृष्ण और अर्जुन आपस में जयद्रथव के विषय में इस प्रकार बाते करने लगे ‘यद्यपि धृताराष्ट्र के छ: महारथी पुत्रों ने जयद्रथ को अपने बीच में छिपा रक्खा है, तथापि यदि वह मेरी आंखों को दीख गया तो मेरे हाथ से जीवित नहीं बच सकेगा। ‘यदि देवताओं सहित साक्षात् इन्द्र भी समरागड़ण में इसकी रक्षा करें, तो भी हम दोनों इसे अवश्य मार डालेंगे’ । इस प्रकार दोनों कृष्ण आपस में बात कर रहे थे।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|